अनुरक्त सिंह (अधिवक्ता)
गुरु गोबिन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु, एक महान योद्धा और कवि थे। वे सिर्फ 9 वर्ष की आयु में सिखों के अंतिम गुरु बने। वर्ष 1699 में उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की। उनके “पांच धर्म लेख” सिखों का हमेशा मार्गदर्शन करते हैं।
सिख मत की स्थापना में उनका योगदान उल्लेखनीय था। उन्होंने 15वीं सदी में प्रथम गुरु, गुरु नानक देव द्वारा स्थापित गुरु ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया व गुरु रूप में सुशोभित किया।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने 22 दिसम्बर, 1666 को पटना साहिब, बिहार में जन्म लिया था। जब उनका जन्म हुआ तो उस वक्त उनके पिताजी (नौवें सिख गुरु गुरु तेगबहादुर जी) बंगाल और असम में धर्म उपदेश देने के लिए गए हुए थे।
जन्म के समय उनका नाम गोबिंद राय रखा गया, वो अपने माता और पिता के एकमात्र संतान थे। जन्म के बाद चार वर्ष तक वो पटना में रहे और जिस स्थान पर उन्होंने निवास किया अब वह स्थान “तख़्त श्री पटना हरिमंदर साहिब” के नाम से प्रसिद्ध है।
जन्म के चार वर्ष बाद 1670 में वे अपने परिवार संग पंजाब लौट आए और दो वर्ष तक वहां रहे। जब वे 6 वर्ष के हुए तो 1672 मार्च में वे चक्क नानकी चले गए जो हिमालय की निचली घाटी में स्थित है, वहां उन्होंने अपनी शिक्षा शुरू की।
चक्क नानकी शहर की स्थापना गुरु गोबिंद सिंह के पिता गुरु तेग बहादुर जी ने की थी, जिसे आज “आनंदपुर साहिब” के नाम से जाना जाता है। उस स्थान को उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह के जन्म से मात्र एक वर्ष पहले 1665 में बिलासपुर के शासक से खरीदा था।
उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी ने अपनी मृत्यु से पहले ही गुरु गोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. तत्पश्चात मात्र 9 वर्ष की आयु में 29 मार्च, 1676 में गोबिंद सिंह 10वें सिख गुरु बने।
वर्ष 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। गुरू गोबिन्द सिंह जी ने सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित भी किया।
उन्होंने इस्लामिक आक्रमणकारियों और उनके खास सहयोगियों के साथ 14 युद्ध लड़े, जिसमें उनके बेटों ने बलिदान दिया। धर्म के लिए उन्होंने समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें “सर्वस्वदानी” भी कहा जाता है। इसके अलावा वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि और कई नामों, उपनामों और उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
उनके सेनापति श्री गुर सोभा के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह के हृदय के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी, जिसके कारण 07 अक्टूबर, 1708 को, हजूर साहिब नांदेड़ में 42 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
गुरु गोबिंद सिंह जी भारतीय इतिहास के उन महानायकों में से एक हैं जिन्होंने मातृभूमि और धर्म की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। यही कारण है कि हिंदुत्व के तमाम उच्च प्रतिमानों को छोड़कर लाहौर में हिंदुओं के बीच गर्जना करते हुए स्वामी विवेकानंद ने गुरु गोबिंद सिंह जी के लिए कहा था कि “यदि तुम्हें अपने देश का भला करना है तो तुममें से प्रत्येक को गुरु गोविंद सिंह बनना होगा। तुम्हें अपने देशवासियों में भले ही हज़ारों दोष नज़र आवें; लेकिन उनके हिन्दू रक्त को पहचानो, जिन्हें तुमको पूजना होगा। चाहे वे तुम्हें हानि पहुँचाने के लिए सब कुछ करें, चाहे उनमें से प्रत्येक तुम्हें शाप डर, अपशब्द कहे, तुम सदा प्रेम के शब्दों से उसका सत्कार करो। यदि वे तुम्हें निष्काषित कर दें, तब भी शक्ति-पुंज सिंह सदृश गुरु गोविंद सिंह की तरह शांति से मरण का वरण करो। ऐसा ही व्यक्ति हिन्दू नाम का अधिकारी है। ऐसा ही आदर्श सदा सम्मुख रखना चाहिए।”
गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती पर शत शत नमन
22 दिसम्बर 2022 दिन बृहस्पतिवार