डॉ. एस. के. गोपाल
लोकतंत्र केवल चुनावी प्रक्रिया का नाम नहीं है; यह सम्मान, सहभागिता और संस्थागत संतुलन की सतत साधना है। जब संस्कृति, भाषा और कलाओं जैसे संवेदनशील क्षेत्र उपेक्षा के शिकार होने लगें, तो वह केवल सांस्कृतिक क्षय नहीं होता, वह लोकतंत्र की धड़कन को धीमा करने वाला संकेत भी होता है। उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक संस्थाओं और भाषाई पहलों की वर्तमान स्थिति इसी संदर्भ में कई गंभीर प्रश्न खड़े करती है।
भाषा और संस्कृति किसी प्रदेश की पहचान, स्मृति और चेतना का आधार होती हैं। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में अवधी, ब्रज, बुंदेली और भोजपुरी भाषाओं के लिए अलग-अलग अकादमियाँ स्थापित करने का संकल्प लिया था। सरकार बनने के बाद प्रस्तुत पहले बजट में प्रत्येक अकादमी के लिए एक-एक करोड़ रुपये का प्रावधान भी किया गया। किंतु चार वर्ष बीतने को हैं और आज भी ये अकादमियाँ धरातल पर नहीं उतर सकी हैं। यह केवल प्रशासनिक देरी नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक इच्छाशक्ति के बीच बढ़ती दूरी का संकेत भी है।
इस परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा की कार्यवाही लोक भाषाओं में संचालित करने की पहल शुरू की गई है। यह कदम अत्यंत सराहनीय है, क्योंकि लोकतंत्र की भाषा वही होनी चाहिए जिसे जनता समझ सके और जिसके माध्यम से वह अपनी संवेदना व्यक्त कर सके। अवधी, ब्रज, बुंदेली, भोजपुरी जैसी लोक भाषाएँ सदियों से उत्तर भारतीय समाज की आत्मा रही हैं; इन्हें विधानमंडल की कार्यवाही में शामिल करना वास्तव में लोकतांत्रिक सहभागिता की बड़ी पहल है। इसी क्रम में लखनऊ स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में अवधी शोधपीठ की स्थापना की अधिसूचना जारी होना भी स्वागतयोग्य कदम है।
अवधी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि लोकजीवन, इतिहास और संस्कृति का समृद्ध भंडार है। इस शोधपीठ के माध्यम से अवधी के संरक्षण, शोध और प्रसार को नया आयाम मिल सकता है, बशर्ते इसे योजनाबद्ध और निरंतर अकादमिक समर्थन प्राप्त हो। इसके बावजूद, प्रदेश की प्रमुख सांस्कृतिक और भाषाई संस्थाओं की निष्क्रियता एक बड़ी चिंता बनी हुई है। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति कई वर्ष से लंबित है।
भाषा संस्थान, हिंदुस्तानी अकादमी व अन्य भाषाई संस्थाओं में भी अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखती। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के प्रतिष्ठित पुरस्कार हों या उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कार, वर्षों से वितरित नहीं किए जा सके हैं। साहित्य, भाषा और शोध की इन संस्थाओं के ठहराव का सीधा असर सांस्कृतिक विकास पर पड़ता है।
लखनऊ का ऐतिहासिक कतकी मेला अव्यवस्थाओं के कारण मूल स्वरूप खो चुका है। पहले डालीगंज फिर मनकामेश्वर उपवन और अब झूलेलाल घाट पर लग रहा यह मेला इस बार अगहन माह में जैसे तैसे शुरू हुआ है। वर्षों से लखनऊ महोत्सव भी आयोजित नहीं हो पा रहा है। यह कार्यक्रम केवल उत्सव नहीं थे; ये इस शहर की सांस्कृतिक चेतना और सामूहिक आत्मीयता के प्रतीक थे। इनके रुक जाने से लखनऊ की सांस्कृतिक धारा में अनचाहा ठहराव आ गया है, जो नागरिक जीवन के भावनात्मक और रचनात्मक पक्ष को कमजोर करता है। सांस्कृतिक संस्थाओं को तब और झटका लगा जब प्रेक्षागृहों के किराए में अचानक भारी वृद्धि कर दी गई।
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के मंच और पूर्वाभ्यास कक्षों के किराए इतने बढ़ा दिए गए कि छोटे-मझोले सांस्कृतिक संगठनों के लिए कार्यक्रम आयोजित करना लगभग असंभव हो गया है। राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह वर्षों तक मरम्मत के नाम पर बंद रहा और जब खुला तो उसका किराया पाँच गुना बढ़ा दिया गया। अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाएँ अपनी कठिनाई खुलकर व्यक्त नहीं कर पा रहीं, लेकिन वे भीतर से आहत हैं और उनके लिए सांस्कृतिक गतिविधियों को जीवित रखना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है।
भाषा और संस्कृति का संरक्षण केवल परंपरा निभाने का मामला नहीं बल्कि सामाजिक स्वास्थ्य, संवेदनशीलता और लोकतांत्रिक जीवंतता का विषय है। जब सांस्कृतिक मंच सीमित हो जाएँ, भाषाई संस्थाएँ निष्क्रिय हों और उत्सव-परंपराएँ ठहर जाएँ, तो जनता के बीच संवाद, रचनात्मकता और सामूहिकता का भाव भी क्षीण होता है। लोकतंत्र केवल वोट और नीतियों से नहीं चलता; वह कविता, नाटक, संगीत, भाषाई अभिव्यक्तियों और सांस्कृतिक उत्सवों से भी जीवन पाता है। इन परिस्थितियों में चिंता इस बात की है कि लोकतंत्र की अनेक परंपराएँ- सांस्कृतिक संरक्षण, भाषा-संवर्धन, शोध, अभिव्यक्ति और रचनात्मकता, धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही हैं। सांस्कृतिक उन्नयन का अर्थ केवल मंचों का निर्माण नहीं, बल्कि उन संस्थाओं को सशक्त करना है जो भाषा, साहित्य, कला और लोक परंपराओं को आगे ले जाती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार इन क्षेत्रों को प्राथमिकता दे और समाज भी अपनी आवाज मुखर रखे।
भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब उसकी सांस्कृतिक और भाषाई धरोहरें सुरक्षित, सक्रिय और समृद्ध रहें। सत्ता और समाज, दोनों को यह समझना होगा कि लोकतंत्र की असली धड़कन संस्कृति में ही बसती है, और जब संस्कृति अवरुद्ध होती है, तो लोकतंत्र भी धीमा पड़ जाता है।
(लेखक डॉ. एस. के. गोपाल स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)
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