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बिहार में एनडीए की बम्पर जीत का राजनीतिक संदेश


डॉ. एस.के. गोपाल

बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों ने राज्य की राजनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव दर्ज किया है। एनडीए की प्रचंड जीत केवल सीटों का अंतर नहीं, बल्कि सामाजिक–राजनीतिक सोच में आए मौलिक परिवर्तन का संकेत है। मतदाताओं ने इस बार स्थिर शासन, अनुभव और प्रशासनिक विश्वसनीयता को प्राथमिकता दी, और यही चुनाव की दिशा तय करने वाला निर्णायक तत्व रहा। इन चुनावों का सबसे बड़ा संदेश महिलाओं की निर्णायक भूमिका है।

जदयू–नीत सरकार द्वारा बड़ी संख्या में महिलाओं के खातों में दस हजार ररुपये की प्रत्यक्ष सहायता ने प्रभावी चुनावी परिणाम दिए। चुनाव के ठीक पहले इस प्रकार की प्रत्यक्ष मदद लोकतांत्रिक नैतिकताओं पर प्रश्न उठाती है, परंतु यह भी सच है कि आज अधिकांश दल इसी मॉडल को अपनाते दिख रहे हैं। दिल्ली से लेकर मध्यप्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र तक प्रत्यक्ष लाभ योजनाओं ने चुनावी रुझानों को प्रभावित किया है। यह प्रवृत्ति यदि अनियंत्रित रही तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में वोटर-लोभ आधारित राजनीति गहरी जड़ें जमा सकती है। चुनाव आयोग और न्यायपालिका को इस पर स्पष्ट दिशा–निर्देश देने होंगे।

वैसे नीतीश कुमार की विजय का मूल आधार उनकी दीर्घकालिक सुशासन छवि रही। स्वास्थ्य संबंधी आशंकाओं, विकास की धीमी रफ्तार और कानून–व्यवस्था में कमियों के बावजूद मतदाताओं ने उनकी नेतृत्व क्षमता को विश्वसनीय माना। दो दशक में भ्रष्टाचार-विहीन छवि, सड़क–शिक्षा–स्वास्थ्य में सुधार, और महिला सशक्तिकरण की योजनाएँ मतदाता के मन में गहराई से दर्ज हैं। इसके विपरीत, राजद अभी भी लालू–राज की स्मृतियों के बोझ से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। तेजस्वी यादव की बेरोजगारी पर बड़ी घोषणाएँ मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सकीं क्योंकि उनकी व्यावहारिकता पर संदेह बना रहा।

महागठबंधन की हार उसकी रणनीतिक कमजोरियों और संगठनहीनता का परिणाम रही। विशेष रूप से कांग्रेस द्वारा अधिक सीटों पर दावा करना, कमजोर उम्मीदवारों का चयन, और चुनावी सक्रियता की कमी राजद के लिए कठिनाई का कारण बनी। राजद के लिए यह संदेश स्पष्ट है कि केवल पारंपरिक वोट–बैंक पर निर्भर रहकर चुनाव नहीं जीते जा सकते। इस चुनाव ने यह भी दिखा दिया कि मुस्लिम मत अब एकतरफा नहीं रहा है। एआईएमआईएम का पाँच सीटें जीतना मुसलमानों में राजनीतिक विकल्पों की खोज का संकेत है। अंतिम चरण में जदयू को भी मुस्लिम समर्थन मिला, जिसने कई सीटों पर समीकरण बदले। राजद के लिए यह स्पष्ट सन्देश है कि प्रतिनिधित्व की राजनीति में विश्वसनीयता और नीतिगत स्पष्टता अनिवार्य है।

यह चुनाव बिहार में जातीय राजनीति के क्षरण का भी संकेत है। पहली बार बड़ी संख्या में मतदाताओं ने जातिगत पहचान से ऊपर उठकर नेतृत्व, स्थिरता और प्रशासन को वरीयता दी। जनसुराज के अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन और कई पारंपरिक जातीय गढ़ों का ढहना इस बदलाव की पुष्टि करता है। प्रशांत किशोर की पदयात्रा ने जन–मुद्दों पर चर्चा अवश्य बढ़ाई, पर चुनावी राजनीति केवल जनसंवाद से नहीं चलती। संगठन, संसाधन और नेतृत्व, ये तीनों जनसुराज में कमजोर रहे। पहले ही चुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना रणनीतिक भूल थी। यदि सीमित क्षेत्रों में मजबूत उम्मीदवार उतारे जाते तो भविष्य के लिए आधार बन सकता था। वहीं एनडीए की जीत का मूल आधार उसका संगठनात्मक अनुशासन, स्पष्ट नेतृत्व और व्यवहारिक सीट–बंटवारा रहा। भाजपा, जदयू और सहयोगी दलों की संयुक्त रणनीति, साथ ही प्रवक्ताओं का संयत और प्रभावी सार्वजनिक प्रदर्शन, मतदाताओं में सकारात्मक छवि बनाने में सफल रहा।

भारी जनादेश बड़ी जिम्मेदारी लेकर आता है। आने वाले वर्षों में बिहार सरकार को कानून–व्यवस्था की मजबूती, रोजगार–सृजन, औद्योगिक निवेश आकर्षित करने, महिलाओं के दीर्घकालिक आर्थिक सशक्तिकरण, विकास की गति तेज करने जैसी चुनौतियों पर निर्णायक काम करना होगा। महिलाओं को दी गई प्रत्यक्ष सहायता उपयोगी है, पर इसे स्थायी आजीविका से जोड़ना ही वास्तविक परिवर्तन लाएगा। बिहार का यह चुनाव राजनीतिक चेतना के विकास, जाति–आधारित राजनीति के कमजोर पड़ने और सुशासन को प्राथमिकता देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। एनडीए की जीत जहाँ उसकी रणनीतिक एकजुटता का परिणाम है, वहीं महागठबंधन की हार उसकी संगठनात्मक कमजोरियों का दुष्परिणाम। बिहार अब एक नए विकास–पथ की ओर बढ़ने को तैयार है, जहाँ स्थिरता, पारदर्शिता और जनता का विश्वास राजनीति के केंद्र में होंगे।

(लेखक डॉ. एस.के. गोपाल स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)