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मानवीय दायित्व है शरणागत की रक्षा

डॉ. एस. के. गोपाल

भारतीय परम्परा में शरणागत की रक्षा केवल सांस्कृतिक आदर्श नहीं, बल्कि इतिहास से लेकर आधुनिक संवैधानिक ढाँचे तक गहराई से स्थापित सिद्धांत है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में स्पष्ट कहा है- “जौ सभीति आवा सरनाई। रखिहहुँ ताहि प्राण की नाई।।’’ अर्थात् जो भयभीत होकर शरण ले, उसकी रक्षा प्राणों की भाँति करनी चाहिए। यह पंक्ति आज भी भारतीय लोकचेतना का वह मूल्य दर्शाती है जो मानवता और संरक्षण को राजनीति से ऊपर रखता है। वर्तमान समय में बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना का मामला इसी परम्परा और संवैधानिक दृष्टिकोण के समन्वय की परीक्षा बनकर सामने आया है।

बांग्लादेश के इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल (आईसीटी) ने हाल ही में शेख हसीना को मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों में दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई है। इस निर्णय ने दक्षिण एशियाई राजनीति में एक नई जटिलता उत्पन्न कर दी है। राजनीतिक अस्थिरता, सत्ता परिवर्तन और घरेलू दबावों के बीच हसीना भारत की ओर देखती हैं। एक ऐसे राष्ट्र की ओर, जो मित्रता और मानवीयता दोनों का संवाहक माना जाता है। विश्व में कई इस्लामिक देश होते हुए भी शेख हसीना ने भारत को सुरक्षित आश्रय के लिए चुना। यह निर्णय बताता है कि भारत उनके लिए केवल भौगोलिक निकटता का राष्ट्र नहीं अपितु विश्वसनीय मित्र, लोकतांत्रिक संरक्षक और संवेदनशील पड़ोसी है।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत, बांग्लादेश के साथ हुई अंतरराष्ट्रीय संधियों के कारण, उन्हें प्रत्यर्पित करने के लिए बाध्य है? कानूनी दृष्टि से प्रत्यर्पण कोई स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया नहीं है। यह तभी संभव है जब संबंधित संधि स्पष्ट रूप से उस अपराध को प्रत्यर्पण योग्य बताती हो, जिस देश को प्रत्यर्पण किया जा रहा है, उसकी न्यायिक व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी उतरती हो, जिस व्यक्ति को प्रत्यर्पित किया जा रहा है, उसके साथ राजनीतिक बदले की भावना से व्यवहार न हो रहा हो तथा प्रत्यर्पण से उसके जीवन को प्रत्यक्ष खतरा न हो। भारत का अपना संविधान और सर्वोच्च न्यायालय इस बात को स्पष्ट रूप से मानता है कि किसी भी विदेशी नागरिक को ऐसे देश को नहीं लौटाया जा सकता जहाँ उसके जीवन का जोखिम हो या जहाँ निष्पक्ष न्याय की गारंटी न हो। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार विदेशी नागरिकों पर भी लागू होता है। यदि किसी शरणार्थी या शरण लेने वाले व्यक्ति को मौत की सजा, राजनीतिक प्रतिशोध, पक्षपाती सुनवाई या भीषण उत्पीड़न का भय हो, तो भारत उसे प्रत्यर्पित करने के लिए बाध्य नहीं है, चाहे संधि हो या न हो। न्याय और मानवीयता दोनों इसका प्रतिरोध करते हैं।

शेख हसीना का मामला केवल कानूनी नहीं, बल्कि राजनीतिक और मानवीय संदर्भों से भी गहराई से जुड़ा है। बांग्लादेश की राजनीति में लंबे समय से वैमनस्य, प्रतिशोध और हिंसा की प्रवृत्ति देखी जाती रही है। ऐसे में आईसीटी का निर्णय तटस्थ न्याय का परिणाम है या आंतरिक सत्ता-स्थापन की रणनीति, यह एक गंभीर प्रश्न है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाएँ भी पहले कई बार बांग्लादेश के न्यायालयों की पारदर्शिता और प्रक्रियागत न्याय पर प्रश्न उठा चुकी हैं। ऐसी स्थिति में भारत के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि शेख हसीना को पूरी तरह निष्पक्ष अवसर मिल रहा है।

भारत का इतिहास बताता है कि उसने संकटग्रस्त व्यक्तियों को केवल इसलिए संरक्षण नहीं दिया कि वे भारत के मित्र थे, बल्कि इसलिए कि उनका जीवन संकट में था। तिब्बत के दलाई लामा से लेकर श्रीलंकाई तमिलों, अफगान नागरिकों और दुनियाभर के अनेक पीड़ित समूहों तक, भारत ने हमेशा मानवीयता की मर्यादा रखी है। शेख हसीना का मामला भी इसी परम्परा का विस्तार है। हसीना को शरण देना और प्रत्यर्पण न करना भारत की संधि-व्यवस्था का उल्लंघन नहीं होगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कानून भी स्पष्ट कहता है कि किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान पर नहीं भेजा जा सकता जहाँ उसे मौत या राजनीतिक प्रताड़ना का खतरा हो। यह भारत के संविधान, न्यायिक परम्परा और मानवाधिकारों के सार्वभौमिक सिद्धांतों के पूरी तरह अनुरूप है। इस पूरे संदर्भ में भारत का निर्णय केवल कूटनीति नहीं, बल्कि मानवीयता, सांस्कृतिक विरासत और संवैधानिक मूल्यों की कसौटी है। भारत ने यदि संकटग्रस्त शेख हसीना को आश्रय दिया है, तो यह वही सनातन भारतीय दृष्टि है, जिसे मानस में भी दो टूक कहा गया है-“जौ सभीति आवा सरनाई। रखिहहुँ ताहि प्राण की नाई।।’’ भारत राजनीति से ऊपर उठकर वही करता है जो उसके हृदय और संविधान दोनों की माँग है, शरणागत की रक्षा। अत: शेख हसीना के मामले में भारत किसी भी संधि के कारण बाध्य नहीं, बल्कि अपने मानवीय दायित्व के कारण स्वतंत्र है।

(लेखक डॉ. एस. के. गोपाल स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)