व्यंग्यबाण
डॉ. एस. के. गोपाल
इतिहासविद् पद्मश्री डॉ. योगेश प्रवीन कहा करते थे- “जहाँ संसार की प्राचीन सभ्यताएँ थीं, वहाँ गलियाँ थीं, सड़कें नहीं।” उनकी बात में सिर्फ इतिहास नहीं, भारतीय समाज का पूरा मनोविज्ञान छुपा है। गली- हमारे शहरों की आत्मा, मोहल्लों का चरित्र और जीवन का वह रास्ता जहाँ से गुजरते-गुजरते आदमी सिर्फ पड़ोसी नहीं, पूरा समाज बन जाता है। योगेश प्रवीन जी स्वयं लखनऊ की रकाबगंज क्षेत्र की गौस नगर की उसी पारंपरिक, तंग, घुमावदार गली में रहते थे। घर का नाम ‘पंचवटी’- जितना पौराणिक, उतना ही सांस्कृतिक। इन गलियों की दुर्गमता का अंदाज़ा इसी बात से लगाइए कि एक बार राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री उनके घर मिलने पहुंचे और सरकारी प्रोटोकॉल गलियों में घुसते ही पसीने-पसीने हो गया। लोक संस्कृति शोध संस्थान के बैनर तले हम लोगों ने कई “लोक चौपालें” उनके घर पर ही लगाईं, जहाँ गली, चौपाल और संस्कृति तीनों एक साथ बैठकर चाय पीते थे। योगेश जी की बड़ी जिज्जी, नब्बे वर्षीय संगीत विदुषी प्रो. कमला श्रीवास्तव, गाड़ी से सड़क तक तो आ जाती थीं, पर गलियों में व्हीलचेयर पर ले जाना पड़ता था। ये वही गलियाँ थीं—जिन्होंने संगीतज्ञों, इतिहासविदों, नेताओं, विद्यार्थियों और व्यंग्यकारों, सबको अपनी चौखट पर बराबरी से बाँध रखा था। वे बताते थे कि नगरों में सुरक्षा की दृष्टि से बड़े बड़े फाटक लगाये जाते थे। सांझ होते ही फाटक बंद और सभी सुरक्षित। लखनऊ में इन्हीं फाटकों के अंदर की गलियां बहुत सारा इतिहास समेटे हैं।
हिंदी गीतों में सड़क की कोई इज्जत नहीं। सड़कें सीधी होती हैं और हमारा समाज, भावनाएँ, राजनीति, रिश्वत, प्रेम, सब टेढ़े। गीतकार गली में ही घूमना पसंद करता है, क्योंकि गली से ज़्यादा संवेदनशील कोई मंच नहीं। तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम, ये गलियां ये चौबारा, जीना तेरी गली में, छोड़ आए हम वो गलियाँ, गली गली में फिरता है तू क्यों बंजारा जैसे गीत बरबस याद आ रहे हैं। सड़क पर आदमी चलता है, गली में आदमी रहता है। सड़कें दूरियों को मापती हैं, गली रिश्तों को। व्यंग यहीं से शुरू हो होता है। “बेहद पतली गली है, कार नहीं जाती।” आजकल तो कार न जा पाए, यह शहरी असुविधा मान ली जाती है। लेकिन कहावत की अगली पंक्ति असली लाल मिर्च है “उधर कभी सरकार नहीं जाती।” कार नहीं जाती, यह तो निजी समस्या है; पर सरकार नहीं जाती, यह राष्ट्रीय चरित्र है। एक ओर तो दावा किया जाता है कि शासन हर नागरिक के दरवाजे तक पहुँच रहा है और दूसरी ओर गलियों को देखकर लगता है कि शासन का जीपीएस केवल चौड़ी सड़कों तक ही काम करता है। जहाँ रिबन काटने की जगह न हो, जहाँ कैमरा न जा पाए, जहाँ भीड़ जमा न हो, वहाँ नेता का दिल अचानक छोटा हो जाता है।
गली में पानी भर जाए तो लोग कहते हैं- “सड़क होती तो नाली होती, नाली होती तो सफाई होती।” लेकिन चूँकि यहाँ सड़क नहीं, भावनाएँ हैं, इसलिए नालियाँ भावनात्मक बहाव पर चलती हैं। गली में बिजली का पोल टेढ़ा हो जाए तो लोग हँसते हैं: “टेढ़ा है, पर हमारा है।” सरकारी योजनाएँ भी कई बार इसी पोल से प्रेरणा लेती हैं। गली में ट्रैफिक जाम नहीं होता, गली में व्यक्तियों का जाम लगता है क्योंकि यहाँ हर मिलने वाला परिचित होता है और हर परिचित पाँच मिनट का सामाजिक दायित्व निभाना चाहता है। इस पाँच मिनट में ही दोपहर शाम हो जाती है और जाम जीवन-शैली। राजनीतिक विज्ञान के आधुनिक अध्याय में यह एक अनौपचारिक सिद्धांत है, “जहाँ कैमरा नहीं, वहाँ शासन नहीं।” गली उतनी ही उपेक्षित है जितनी किसी फाइल में दबा कोई ग्रामीण विकास प्रोजेक्ट। सभी सरकारें गलियों से वैसे बचती हैं जैसे छात्र बोर्ड परीक्षा से पहले गणित के कठिन प्रश्नों से। दूर से मुस्कुराहट, पास जाकर तत्काल पलटी, यही नीति है। गली में अधिकारी तभी आता है जब चुनाव नज़दीक हो। वह वादा कर जाता है कि “इस बार गली चौड़ी हो जाएगी” पर गली भी चुनावी वादों की तरह अगली बार पर टिकी रहती है। गली का आधा जीवन चुनाव से पहले का वादा सुनने में और बाकी आधा चुनाव के बाद का इंतज़ार करने में बीत जाता है। अगर भारत की सारी गलियाँ चौड़ी कर दी जाएँ तो फिल्म संगीत उद्योग पर भूकंप आ जाएगा। “तेरी गलियों में…” का नाम बदलकर “तेरी चार-लेन सड़क पर…” करना पड़ेगा। रोमांस तुरंत समाप्त। गली के बिना- न मोहब्बत, न लड़ाई, न राजनीति, न चुगलखोरी, न बचपन की स्मृति, न बुजुर्गों की कहानी। गली हट गई तो भारतीय जीवन सीधे ही अनजाने लगने लगेगा। गली संकरी है जैसे हमारी नीतियाँ। गली अनियोजित है जैसे हमारा विकास। गली उलझी है जैसे हमारी प्रशासनिक व्यवस्था और गली में सरकार कम ही जाती है, जैसे जनता के कई मुद्दों पर। इसलिए गलियाँ बची रहनी चाहिए क्योंकि इन्हीं में भारत का वास्तविक, जीवंत, गर्मजोशी से भरा, कभी-कभी नाराज़ और हमेशा व्यंग्यप्रिय समाज बसता है। और यह तो तय है- जहाँ सरकार नहीं जाती, वहीं व्यंग्यकार सबसे पहले पहुँचता है।
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