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प्रश्न खड़ा करती बेटी की वेदना

डॉ. एस.के. गोपाल

किसी भी समाज की संवेदना तब परखी जाती है जब उसके भीतर से कोई ऐसी घटना सामने आती है जो व्यक्ति नहीं, व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करती है। हाल की एक अत्यंत दुःखद और पीड़ादायक घटना, जहाँ अपने पिता को किडनी दान देने वाली समर्पित बेटी को ही परिवार के भीतर अपमान, उपेक्षा और मानसिक विषाद का सामना करना पड़ा, हमारी सामाजिक चेतना को झकझोर कर रख देती है। सबसे अधिक हृदय विदारक वह वाक्य है, जिसे कहने को वह विवश हुई- “आप सब मेरे रास्ते कभी मत चलें… किसी घर में मेरे जैसी बेटी या बहन पैदा न हो।” एक बेटी की यह निराशा केवल एक परिवार की त्रुटि नहीं; यह हमारी सामाजिक संरचना पर गहरा प्रश्नचिह्न है।

घरेलू राजनीति की जटिलताओं को समझना भले कठिन हो, लेकिन यह तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यह मामला किसी सामान्य परिवार का नहीं, बल्कि देश के एक सम्मानित राजनीतिक परिवार का है, जहाँ नौ बच्चों में सात बेटियाँ हैं और जिनकी माता एक समय बड़े राज्य की मुख्यमंत्री रही हैं। ऐसे परिवार में यदि समर्पण की प्रतिमूर्ति बेटी का ही अपमान हो तो यह विडंबना केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक दायरे में सीमित नहीं रहती; यह समाज और राजनीति दोनों पर एक नैतिक प्रश्न बनकर उभरती है।

किसी पिता को किडनी दान देना सिर्फ जैविक निर्णय नहीं होता, यह निष्ठा, करुणा और त्याग का सर्वोच्च रूप होता है। जब उसी बेटी को अपमान या तिरस्कार का बोझ ढोना पड़े तो यह स्पष्ट संकेत है कि समाज अब भी स्त्री के समर्पण को आवश्यक मानता है, पर उसके सम्मान को सुनिश्चित करने में असफल है। यह विडंबना तब और गहरी हो जाती है जब हम देखते हैं कि आज भारत की स्त्री समाज के लगभग हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। वह विज्ञान, प्रशासन, रक्षा सेवाओं, न्यायपालिका, कला, खेल, व्यवसाय और राजनीति, प्रायः हर मंच पर अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रही है। यह हमारे सामाजिक विकास की सकारात्मक दिशा है कि मातृशक्ति अब सहभागी नहीं, बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका में दिखाई दे रही है। इसी के साथ यह उल्लेखनीय है कि भारत की संसद भी महिलाओं को राजनीति में समुचित और प्रभावी भागीदारी दिलाने के लिए प्रतिबद्ध एवं संकल्पित है। यह कदम न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों की पुष्टि करता है, बल्कि यह संदेश भी देता है कि राष्ट्र निर्माण में महिलाओं का योगदान अब संरचनात्मक रूप से मान्यता पा रहा है। लेकिन इसी वास्तविकता के बीच किसी बेटी का परिवार से लगातार संघर्षरत होना, उसके त्याग का उपहास होना, यह सामाजिक व्यवहार और राजनीतिक संकल्प के बीच की दूरी को उजागर करता है।

हर बेटी पूरे समाज का गौरव होती है। अगर त्याग करने वाली बेटी ही अपने अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर दे, तो यह स्पष्ट है कि समस्या हमारी मानसिकता में कहीं गहरे तक बसी हुई है। परिवार यदि सम्मान देने में असफल हो जाए, तो बड़े से बड़ा सामाजिक सुधार भी अधूरा रह जाता है। यह घटना एक चेतावनी है कि हम केवल बेटियों से त्याग की अपेक्षा न रखें, बल्कि उनके आत्मसम्मान, सुरक्षा और अधिकार की रक्षा को प्राथमिकता भी दें। स्त्री का सम्मान भावनाओं से नहीं, व्यवहार और व्यवस्था से सुनिश्चित होता है।

आज जब देश एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है, तब ऐसी घटनाएँ हमें याद दिलाती हैं कि विकास केवल नीतियों का नहीं, बल्कि सोच का भी विषय है। जरूरत इस बात की है कि समाज, परिवार और व्यवस्था, तीनों मिलकर यह सुनिश्चित करें कि किसी बेटी को फिर कभी यह न कहना पड़े कि “मेरे जैसी बेटी किसी घर में न पैदा हो।” यह वाक्य केवल एक स्त्री की पीड़ा नहीं, हमारी सामाजिक आत्मा के भीतर गूँजता प्रश्न है। क्या हम सच में उन बेटियों के योग्य समाज बने हैं, जो हम पर अपना सबकुछ न्यौछावर कर देती हैं?

(लेखक डॉ. एस.के. गोपाल स्वतंत्र पत्रकार एवं समीक्षक हैं और ये उनके निजी विचार हैं)