लोकमानस में छुपी सहज कलाओं का निचोड़ है कठपुतली कला – विद्याविंदु सिंह
समकालीन कठपुतली विधा का हुआ जीवंत दस्तावेजीकरण
कठपुतली नाटक ‘केवल जिम्मेदारी’ और गुलाबो-सिताबो का हुआ प्रदर्शन
लखनऊ (टेलीस्कोप टुडे संवाददाता)। कठपुतली कला लोकमानस में छुपी सहज कलाओं का निचोड़ है। इसका अद्भुत लालित्य बच्चे-बूढे़ और वयस्क सभी को आकर्षित करता है। आज जरूरत पुतुल कला ही नहीं, अपनी सभी लोककलाओं को सहेजने-संवारने की है। इस दिशा में काम हो रहा है, परंतु निरंतरता के साथ इसे स्तरीय ढंग से करना होगा। उक्त उद्गार यहां वाल्मीकि रंगशाला गोमतीनगर में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की त्रैमासिक पत्रिका ‘छायानट’ के कला समीक्षक राजवीर रतन के संपादल में निकले पुतुल कला विशेषांक का विमोचन करते हुए बतौर मुख्य अतिथि मौजूद लोककलाविद पद्मश्री विद्याविंदु सिंह ने व्यक्त किये। विमोचन अवसर पर प्रदीपनाथ त्रिपाठी ने भूरे मास्टर से सीखी प्रदेश की परम्परागत एकल कला विधा ‘गुलाबो-सिताबो’ का प्रदर्शन किया तो शाहजहांपुर के कप्तान सिंह कर्णधार ने पुतुल नाटक ‘केवल जिम्मेदारी’ का प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश लोककलाओं की उर्वरा भूमि है। अवध अंचल लोकगीतों के लिए प्रसिद्ध है तो प्रदेश नौटंकी, धतिंगवा, रासलीला, रामलीला जैसे समृद्ध लोकनाट्यों और फरुवाही, ढेढ़िया, चरकुला, पाईडण्डा, दीवारी, राई जैसे विश्व भर में सराहे जाने वाले लोकनृत्यों की भूमि है। अकादमी ने समकालीन संदर्भ में पुतुल कला पर विषेशांक निकालकर अभिलेखीकरण का सराहनीय कार्य किया है। लोक कलाओं पर ऐसे ही गम्भीर कार्य निरंतर चलने चाहिए।
सुनील शुक्ला के संचालन में चले समारोह में अकादमी के निदेशक तरुण राज ने अतिथियों का स्वागत करते हुए बताया कि छायानट पांचवें दशक में चल रही अकादमी की पत्रिका के कई अंक अत्यंत चर्चित रहे हैं। पुतल कला का यह अंक पुतुल कला की गिनी-चुनी एकल पुतुल विधाओं में से एक अवध अंचल की गुलाबो-सिताबो पर केन्द्रित है। अंक में विश्व के पुतुल प्रयोगों के साथ ही देश के अनेक अंचलों में प्रचलित दस्ताना पुतुल, धागा पुतुल, छड़ पुतुल व छाया पुतुल के विभिन्न पहलुओं को समेटा गया है।
संपादक राजवीर रतन ने बताया कि मुख्यपृष्ठ पर ‘गुलाबो-सिताबो’ के चित्र के साथ ही अंक में इस छोटे से खेल पर शोधात्मक आलेख है तो गुलाबो-सिताबो के परम्परागत कलाकार नौशाद की कश्मकश पर शबाहत हुसैन विजेता का परम्परागत विधा पर चिंतन के लिए विवश करता है। डा. महेन्द्र भानावत ने गुलाबो-सिताबो की व्याख्या की है। पुतुल नाटक ‘जब जागा तभी सवेरा’ में गुलाबो-सिताबो की नोंक-झोंक की आधुनिक नाटिका अंक विधा के आसान प्रयोगात्मक पक्ष को सामने रखता है।
अंक में पद्मश्री दादी डी पद्मजी से सवाल-जवाब हैं दक्षिण भारत की पुतुल कलाओं के प्रयोगों को रामचन्द्र पुलवर-राहुल पुलवर ने रेखांकित किया है। साथ ही इस अंक में अनुपमा होसकेरे बंगलुरु, सुदीप गुप्ता कोलकाता, लोकनाथ शर्मा भरतपुर, डा. मौसुमी भट्टाचार्जी, वंदना कन्नन चेन्नई, साक्षरता निकेतन लखनऊ से जुड़े लायकराम मानव, वाराणसी के राजेंद्र श्रीवास्तव, केरल की पद्मश्री मुजक्किल पंकजाक्षी पर लोककला विशेषज्ञ ज्योति किरन रतन, प्रो. रामनिरंजन लाल, अनिल मिश्रा गुरुजी, पुतुल कलाकार मिलन उह अनिल गोयल व विभा सिंह इत्यादि के भी लेख हैं। विमोचन अवसर पर सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, करुणा पांडेय, पद्मा गिडवानी, मेराज आलम, अनिल मिश्रा सहित अनेक रंगकर्मी व पुतुल प्रेमी उपस्थित थे।