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रचनात्मक हस्तक्षेप है ओटीटी सामग्री के नियमन की मांग


डॉ. एस.के. गोपाल

इस वर्ष हुए अखिल भारतीय साहित्य परिषद के रीवा अधिवेशन में ओटीटी प्लेटफार्मों और गेमिंग एप्स के नियमन की जो मांग उठाई गई, वह केवल सांस्कृतिक शुचिता का प्रश्न नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के भविष्य से जुड़ा एक अत्यंत गंभीर मुद्दा है। परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव ने हमारे समय की उस बड़ी विडंबना को रेखांकित किया है जिसमें बाज़ारवाद और भौतिकता ने मनोरंजन को मर्यादा और मानवता से दूर कर एक व्यापारिक उत्पाद में बदल दिया है।

हमारी सांस्कृतिक परंपरा परहित सरिस धर्म नहिं भाई और परोपकराय सताम् विभूतय: जैसे सूत्रों पर आधारित रही है। परंतु आज डिजिटल तकनीकें, जिन पर बाज़ारवादी तंत्र का प्रभाव है, मनोरंजन के नाम पर हिंसा, उग्रता, अश्लीलता, नशाखोरी और विकृत आचरण को आकर्षक पैकेज बनाकर प्रस्तुत कर रही हैं। विशेष चिंता की बात यह है कि ओटीटी के अनेक कार्यक्रम और गेमिंग ऐप्स युवाओं को उन्माद, अवसाद, हिंसक आवेग और यहां तक कि आत्महत्या तक के लिए प्रेरित कर रहे हैं। साहित्य परिषद की यह चिंता उचित है कि इन माध्यमों में प्रसारित सामग्री भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक मर्यादाओं को चोट पहुँचा रही है। वोकिज़्म और नकारात्मकता का खुला प्रचार समाज में भ्रम और अस्थिरता बढ़ा रहा है। इस अनियंत्रित प्रसारण को रोकना केवल संस्कृति की रक्षा नहीं, बल्कि समाजिक स्वास्थ्य और राष्ट्रीय सुरक्षा का भी प्रश्न है।

मनोरंजन की भूमिका समाज में संवेदना, सृजनशीलता और मानवीयता का संचार करना रही है। एक समय में आकाशवाणी और दूरदर्शन इस दायित्व के प्रतीक थे। दूरदर्शन का घर–परिवार जैसे धारावाहिक केवल कार्यक्रम नहीं थे, वे संस्कार थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि वर्ष 1992 में एक परिवार का जीवन इसी धारावाहिक से बदल गया। शारदा देवी हर रविवार इसे देखकर रिश्तों की सीख देती थीं। बूढ़े माँ-बाप का स्थान एपिसोड ने रीमा को भीतर तक छू लिया और घर में संवाद पुनर्जीवित हो गया। बाद में माँ का आशीर्वाद एपिसोड ने यह संदेश दिया कि परिवार का आधार प्रेम है। यह प्रसंग साबित करता है कि अच्छा मनोरंजन जीवन को दिशा देता है, जबकि विकृत मनोरंजन उसे भटका सकता है। आज के ओटीटी और डिजिटल कंटेंट में इस सकारात्मकता का गंभीर अभाव है। इसलिए नियमन अनिवार्य है। प्रतिबंध नहीं, परंतु संतुलन और सामाजिक जवाबदेही ज़रूर। अखिल भारतीय साहित्य परिषद ने जो मांगें उठाई हैं, वे पूरी तरह व्यवहारिक और समाज-हित में हैं। प्रमुख मांगों में पहला है- सामग्री की जाँच और नियमन के लिए स्वायत्त वैधानिक संस्था का गठन। दूसरा, संवैधानिक गरिमा, धार्मिक आस्थाओं और सांस्कृतिक मूल्यों को आहत करने वाली सामग्री पर निगरानी। तीसरा, किशोरों एवं युवाओं के लिए आयु-आधारित नियंत्रण। चौथा- हिंसा, अश्लीलता और नशाखोरी फैलाने वाले मंचों पर कठोर कार्रवाई और पांचवां- भारतीय मूल्यों और भाषाओं पर आधारित वैकल्पिक मनोरंजन को प्रोत्साहन। ये केवल मांगें नहीं—समाज की सुरक्षा और सांस्कृतिक संतुलन के लिए नीति-निर्माण की दिशा हैं।

आज फेसबुक, एक्स, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ओटीटी प्लेटफार्मों को लोकतंत्र का अघोषित पाँचवाँ स्तंभ कहा जा सकता है। इनकी पहुँच भारत के गाँवों तक है। सूचनाओं का प्रवाह तीव्र हुआ है, और अनेक लोग इससे आजीविका भी कमा रहे हैं। परंतु इतनी व्यापक शक्ति के साथ नियंत्रणहीनता घातक हो सकती है। यह स्पष्ट है कि डिजिटल मनोरंजन का अनियंत्रित विस्तार समाज, संस्कृति और युवा पीढ़ी पर गंभीर प्रभाव डाल रहा है। साहित्य परिषद की यह पहल केवल चेतावनी नहीं, बल्कि एक रचनात्मक हस्तक्षेप है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और आवश्यक नीतिगत कदम उठाने चाहिए। जब तक मनोरंजन में मर्यादा, संवेदना और संस्कृति का संतुलन नहीं आएगा, समाज की आत्मा विचलित होती रहेगी। ओटीटी का नियमन केवल नियम नहीं, राष्ट्र के चरित्र की रक्षा का प्रयास सिद्ध होगा।

(लेखक डॉ. एस.के. गोपाल स्वतंत्र पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)