लखनऊ (टेलीस्कोप टुडे संवाददाता)। सिर्फ नौ साल की उम्र में शिकारपुर के रहने वाले साहिल ने ऐसी मेडिकल चुनौतियों का सामना किया था, जिसका सामना बहुत से लोग अपनी पूरी जिंदगी में भी नहीं करते होंगे। जब साहिल की उम्र केवल छह महीने थी, तब उसे थैलेसीमिया नाम की बीमारी का पता चला। इस बीमारी के कारण उसका हीमोग्लोबिन स्तर बहुत कम, लगभग 7 ग्राम/डीएल के आसपास रहता था और उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती थी। जब वह सात साल का हुआ, तो डॉक्टरों ने उसे बोन मैरो ट्रांसप्लांट (बी.एम.टी.) के लिए अयोग्य घोषित कर दिया हालांकि उसके छोटे भाई का बोन मैरो पूरी तरह से मैच करता था। बी.एम.टी. थैलेसीमिया का एकमात्र इलाज है। पर अब, मेदांता लखनऊ के डॉक्टरों की मदद से, साहिल पूरी तरह स्वस्थ है और इस साल उसने अपने छोटे भाई के साथ रक्षाबंधन का त्योहार खुशी से मनाया।
थैलेसीमिया के इलाज के लिए वर्षों तक खून चढ़ाने से साहिल को कई गंभीर साइड इफेक्ट्स हो गए थे, जिससे बोन मैरो ट्रांसप्लांट उसके लिए बहुत जोखिम भरा हो गया था। उसके शरीर ने अलोइम्यूनाइजेशन विकसित कर लिया था, यानी उसने डोनर रेड ब्लड सेल्स को नष्ट करने वाले एंटीजन बनाना शुरू कर दिया था, जिससे उसका हीमोग्लोबिन स्तर स्थिर नहीं रह पाता था। इसके कारण उसे हर महीने की बजाय अब हफ्ते में 2-3 बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ने लगी। इस स्थिति के चलते उसकी तिल्ली (स्प्लीन) का आकार 9 सेमी तक बढ़ गया था और उसके दिल और जिगर में अत्यधिक आयरन जमा हो गया, जो उसके लिए बहुत खतरनाक था।
साहिल की बीमारी की गंभीर समस्याओं और इलाज की मांगों ने उसे स्कूल जाने या खेलने जैसी सामान्य गतिविधियों से पूर्णतया रोक दिया था। साहिल के परिवार ने कारगर इलाज के लिए देश भर के कई अस्पतालों का दौरा किया, लेकिन हर जगह से यही जवाब मिला कि बी.एम.टी. करने में जोखिम बहुत अधिक है, खासकर उसकी बढ़ी हुई तिल्ली और अलोइम्यूनाइजेशन के कारण।
तब ही उसके परिवार ने मेदांता लखनऊ में मदद मांगी, जहां विशेषज्ञों की एक टीम ने साहिल की समस्याओं को हराने का निश्चय किया। डॉ. अंशुल गुप्ता (मेदांता लखनऊ में मेडिकल ऑन्कोलॉजी के निदेशक) ने साहिल की बढ़ी हुई तिल्ली को हटाने के लिए स्प्लीनक्टॉमी सर्जरी की। दो महीने बाद, साहिल का सफलतापूर्वक बोन मैरो ट्रांसप्लांट हुआ, जिसमें उसके छोटे भाई के एच.एल.ए. मैच का उपयोग किया गया, और इससे साहिल की जिंदगी में बड़ा बदलाव आया।
डॉ. गुप्ता ने बताया, “बढ़ी हुई तिल्ली को हटाना और फिर बोन मैरो ट्रांसप्लांट करना साहिल के थैलेसीमिया इलाज और ठीक होने के लिए बेहद जरूरी था। जो मामला पहले बहुत कठिन लग रहा था, अब वह एक सफलता की कहानी बन गया है।”
अब, ट्रांसप्लांट के छह महीने बाद, साहिल का हीमोग्लोबिन स्तर 10 से 11 के बीच स्थिर है। उसने अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दी है और अब वह अपने बचपन की उन सभी खुशियों का आनंद ले रहा है जो पहले उसकी बीमारी ने उससे छीन ली थीं।
साहिल के माता-पिता ने खुशी और राहत व्यक्त करते हुए कहा, “हमारे बेटे को स्कूल जाते और अपने दोस्तों के साथ खेलते देखना एक ऐसी खुशी है जिसे हमने सोचा था कि शायद कभी अनुभव नहीं कर पाएंगे।” उन्होंने अपने अनुभव को थैलेसीमिया वाले बच्चों के माता-पिता के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने की कसम खाई और कहा कि बोन मैरो ट्रांसप्लांट (बी.एम.टी.) की सिफारिश मिलने पर इसको तुरंत प्रभाव से कराना चाहिए।
डॉ. गुप्ता ने बताया, “लंबे समय तक खून चढ़ाने के कारण साहिल की स्थिति बिगड़ गई थी। उसे अलोइम्यूनाइजेशन, हीमोलिसिस और स्प्लेनोमेगाली जैसी जटिलताएं हो गई थी। इसके बावजूद हम मेदांता लखनऊ में उसका इलाज कर सके। ज़रूरी बात ये है की अगर शुरुआत में ही बोन मैरो ट्रांसप्लांट करवा लिया जाए तो पेशेंट्स इन जटिलताओं से बच सकते हैं।”