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शिक्षा से ही समाज और राष्ट्र का उत्थान संभव

आज जब शिक्षा और साक्षरता का प्रयास सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर चारों ओर दिखाई पड़ रहा है तथा शिक्षा जन शिक्षा का स्वरूप धारण करने के लिए मचल रही है तो शिक्षा में यदि राष्ट्रीय बोध न रहा तो साक्षर व्यक्ति राक्षस बन जायेगा और शिक्षित व्यक्ति घोर स्वार्थी तथा एकांगी। शिक्षा का यही स्वरूप तो आज दिखाई पड़ रहा है। अपहरण, लूटमार, बलात्कार, बेईमानी, भ्रष्टाचार, मिलावट, छल और धोखाधड़ी जैसे मामलों में नब्बे प्रतिशत शिक्षित व्यक्तियों की ही सहभागिता है। अतः शिक्षा में राष्ट्रीय बोध के बिना राष्ट्र का उत्थान, देश की प्रगति और सामाजिक समरसता तथा देशभक्ति जैसी भावनाओं और विचार कोरे नारे और स्वप्न मात्र रह जायेंगे। शिक्षा के संबंध में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- “जब तक करोड़ों मनुष्य भूख और अज्ञान में जीवन बिता रहे हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही समझता हूँ, जो उनके व्यय से शिक्षित हुआ है और अब उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता। शिक्षा की अवहेलना करना, महान राष्ट्रीय पाप है और यही हमारे अधःपतन का कारण है। राजनीति चाहे जितनी अधिक मात्रा में रहे, पर उससे तब तक कोई लाभ न होगा, जब तक भारतवर्ष की जनता पुनः एक बार सुशिक्षित न हो जाए।” 

स्वतन्त्रता से पूर्व शिक्षा पर अंग्रेजों और उनके मानस पुत्रों का एकाधिकार था। जिन्हें मैकाले पुत्र कह सकते हैं और स्वतन्त्र भारत में इस शिक्षा पर एकाधिपत्य था, मार्क्सपुत्र साम्यवादियों का। शिक्षा में राष्ट्रीय बोध के स्थान पर राष्ट्रद्रोहिता और घोर स्वार्थान्धता को ही प्रश्रय मिल रहा था। अतः स्वतंत्र भारत की शिक्षा की संरचना और चिन्तन में राष्ट्रीय बोध अपरिहार्य तत्त्व है और राष्ट्र निर्माण की दिशा भी यही है। 

शिक्षा क्या है? स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में- “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।” ज्ञान अन्तरात्मा में निहित है, उसे अनावृत करना है। आत्मा परमात्मा का ही अंश होने के कारण अनन्त ज्ञान का भण्डार है। इस पर माया और अज्ञान का आवरण है, शिक्षा के द्वारा उस आवरण को हटाना है। अतः भाषा और विषयों का अध्ययन तो शिक्षा के माध्यम हैं। न्यूटन ने पृथ्वी के जिस गुरुत्वाकर्षण का प्रतिपादन या आविष्कार किया तो क्या न्यूटन आविष्कार के पूर्व सेब का फल पेड़ से टूट कर पृथ्वी पर नहीं गिरता था? वह पहले भी धरती पर ही गिरता था। हाँ, उसे धरती पर गिरता देख न्यूटन ने जान लिया कि धरती की ओर सेब क्यों आया? समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक है अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य के अन्दर वैसे ही छिपा पड़ा है जैसे बीज में उसके अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और पुनः वैसा ही बीज बनने की क्षमता। अनुकूल वातावरण, खाद, पानी आदि मिला तो वही पौधा या विशाल वृक्ष बन सकता है। वैसे ही औपचारिक/अनौपचारिक साधनों के द्वारा बालक सीखता है और यही शिक्षा है। एक विशाल वट वृक्ष जो कई एकड़ जमीन को घेरे खड़ा है, उस छोटे से बीज में ही उसकी विशालता और सघनता समाहित थी जो आकार में सरसों के दाने से भी छोटा है। हम जानते हैं कि विशाल बुद्धि एक अत्यन्त छोटे से जीवाणु कोष (Protoplasmic Cell) में सिमटी रहती है। हममें से प्रत्येक जीवाणु कोष से ही उत्पन्न हुआ है और हमारी सारी शक्तियाँ उसी में निहित हैं।

जब यह कहा जाता है कि शिक्षा का अर्थ सीखना और सिखाना है तो बालक अबोध अवस्था से ही माँ की गोदी में ही अपनी शिक्षा प्रारम्भ कर देता है और फिर परिवार, पड़ोस, समाज तथा विद्यालय के माध्यम से और आगे चलकर स्वाध्याय तथा अनुकरण से वह निरन्तर सीखता ही रहता है अर्थात् शिक्षा प्राप्त करता रहता है। सीखने की यह प्रक्रिया ही तो शिक्षा है। अतः इस सीखने की प्रक्रिया में “हम अज्ञान के पर्तों को हटाते चलें। यदि सुख चाहते हैं, जो सबकी तमन्ना है तो इस अज्ञान, माया के दायरे को तोड़ते हुए चलें। बालक जैसे परिवार के दायरे में एक रूप होकर ‘मैं’ का विस्तार ‘हम’ करता है। परिवार का सुख-दुःख उसका अपना सुख-दुःख हो जाता है। यह ‘मैं’ का दायरा जितना विस्तृत होता जायेगा, सुख की अनुभूति भी बढ़ती जायेगी। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही परब्रह्म परमात्मा की अभिव्यक्ति है। उसमें मनुष्य ही उसकी श्रेष्ठतम कृति है क्योंकि आत्मा का अंश अधिक मात्रा में उसी में है। उस आत्मा को जानना ही अर्थात् आत्म साक्षात्कार ही शिक्षा है। इसीलिए सुशिक्षित अर्थात् ज्ञानी (पंडित) वही है जो सबमें अपनी आत्मा को ही देखता है। गीता कहती है, “आत्मवत् सर्वभूतेषु यो पश्यति सः पण्डितः” महात्मा बुद्ध ने भी शिक्षा के लिए “अप्पोदीपोभव” कहकर यही अपने (आत्मा) को जाने। जिसे दीपक (शिक्षा) के प्रकाश में जाना जा सकता है।

शिक्षा क्यों है ?

शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास कहा जाता है। इस विकास का अर्थ करते हैं शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास- किन्तु असली विकास को भूलकर यह कैसे विकास होगा? गीता में आया है- इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिया बुद्धे परतस्तु सः ।। अर्थात् इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे ‘वह’ अर्थात् ‘आत्मा’ है। अतः भारतीय शिक्षा दर्शन में प्राणिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास की बात भी कही गई है। इसीलिए शिक्षा का शुद्ध रूप है “विद्या” और “सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात् विद्या मुक्ति की ओर ले जाती है। सभी अज्ञान के पर्तों को काटकर माया के बन्धनों से मुक्ति ही तो विकास है। शिक्षा के द्वारा उपलब्ध इस विकास को राष्ट्रीय सन्दर्भों में प्रयुक्त करना ही राष्ट्रीय बोध है।

सामान्यतः राष्ट्र के तीन अंग माने जाते हैं – १. भूमि जो देव प्रदत्त है। २. जन (समाज) जिसके अंग हम और हमारे पूर्वज हैं। ३. संस्कृति जो ऋषि ऋण के रूप में धर्म, सभ्यता और आध्यात्मिकता को धारण करती हैं। इस संस्कृति में भाषा, इतिहास, ज्ञान, परम्पराएँ, देवता, महापुरुष, मानबिन्दु, तीर्थस्थल आदि आते हैं। प्रत्येक देश में शिक्षा के प्रथम उद्देश्य में संस्कृति आती है। शिक्षा के द्वारा जिसके तीनों आयामों को पुष्ट करना होता है- १. संस्कृति का संरक्षण, २. संस्कृति का परिवर्द्धन और ३. संस्कृति का अगली पीढ़ी को हस्तांतरण। शिक्षा इन तीनों का काम करती हैं। जिस राष्ट्र की शिक्षा इन दायित्वों का निर्वाह नहीं करती वे राष्ट्र विश्व-पटल से मिट जाते हैं। संयोग से गत हजार वर्षों से शिक्षा अपने इस दायित्व से विमुख होती जा रही है। जिसका परिणाम राष्ट्र की दीनदशा, दरिद्रता, निर्धनता, निर्वीर्यता और मानसिक दासता तथा पराङ्गमुखता है। यह स्थिति राष्ट्रीय बोध के अभाव के कारण है।

मानव एक इकाई होते हुए भी विविध सम्बन्धों में परिवार, पड़ोस, समाज, राष्ट्र, विश्व तथा परमेष्ठि का अंश है। यह सप्तपदी यात्रा ही मानव का पूर्ण विकास है जो शिक्षा का उद्देश्य है। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव के कारण केवल व्यक्ति का विचार या अधिक, शिक्षित होने के उपरान्त अपने परिवार के सुखी जीवन का विचार होने के कारण समाज और राष्ट्र की यह दुर्दशा दिखाई पड़ती है कि विश्वगुरु के पद को सुशोभित करने वाला राष्ट्र गरीबी और भ्रष्टाचार में अग्रगणी होकर स्वतंत्रता की अर्द्धशताब्दी बीत जाने के बाद भी विकासशील राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा है।

शिक्षा की संरचना भारतीय जीवन दर्शन के सन्दर्भ में ऐसी की जाये कि इस राष्ट्र की संस्कृति का संरक्षण, परिवर्द्धन और हस्तान्तरण होता चले। ऐसा होने पर शिक्षा के द्वारा ही राष्ट्रीय स्वाभिमान का जागरण, सामाजिक चेतना का भाव, स्वदेश भक्ति और मान बिन्दुओं की रक्षा का भाव ही तो राष्ट्रीय उत्थान के लिए अग्रणी होगा। है। देश के किसी भी कोने में कोई दैवी या मानवीय आपदा आती है तो सारा देश उसके प्रतिकार के लिए वैसे ही उठ खड़ा होता है जैसे शरीर के किसी अंग पर कोई आघात होने को हो तो शरीर, मन, प्राण और बुद्धि एकजुट होकर प्रतिकार के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। उसी प्रकार राष्ट्र पर आये संकट के मोचन के लिए समाज का प्रत्येक व्यक्ति तन-मन-धन से सहयोग हेतु दौड़ पड़े। यह भूमि मेरी माता है अत: निरहेतुक भाव से इसकी उपासना-सेवा करना मेरा धर्म है। इस देश के पूर्वज, ऋषि, महापुरुष मेरे लिए पूज्य और प्रातः स्मरणीय हैं। यदि मेरे देश का एक भी प्राणी भूखा है तो मुझे नींद नहीं आती। अपने गिरिवासी- है वनवासी दलित कहे जाने वाले सब मेरे आत्मीयजन हैं। इनके कष्ट दूर करने के लिए मैंने शिक्षा पाई है, यही राष्ट्रीय उत्थान का भाव और शिक्षा ही इस बोध को जगाती है । गो-गीता-गंगा-गायत्री माता रूप में मेरे लिए पूज्य हैं। अपनी समस्त शक्तियों एवं क्षमताओं का प्रयोग राष्ट्रीय विकास और सामाजिक चेतना एवं समरसता के निर्माण में होगा, यही विचार तथा तदनुरूप क्रिया ही राष्ट्रीय उत्थान है। कोठारी के शब्दों में, “भारत का भाग्य कक्षा- कक्षों में निर्मित हो रहा है।” वास्तव में शिक्षित युवक भारत के भाग्य निर्माता बनें, राष्ट्र निर्माण का स्वप्न उनकी आँखों में रहे और वे कह उठें, “तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहें।” शिक्षा के द्वारा समाज में इसी भाव का जागरण होता चले तो शिक्षा से ही समाज और राष्ट्र का उत्थान संभव है।

(लेखक विकास मिश्रा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के शोधार्थी है और ये उनके निजी विचार हैं)