लेखिका: प्रो. रूबी कश्यप सूद,
वस्त्र डिजाइन,राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान
कपड़ा मंत्रालय, भारत सरकार
साड़ी, सिलाई रहित और लपेटकर पहना जाने वाला एक विशिष्ट परिधान है, जो हर भारतीय महिला की अलमारी में निश्चित तौर पर विशेष स्थान रखता है। यह प्राचीन काल से ही धारण किए जाने वाला एक ऐसा पुरातन परिधान है, जो खुद को आधुनिक भारत में महिलाओं की प्राथमिकताओं और जीवन शैलियों में आ रहे बदलावों के अनुकूल कुशलता से ढालकर अपना चलन बरकरार रखे हुए है। साड़ी किसी महिला के जीवन के विभिन्न चरणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और उसे पहनने वाली महिला की उसके साथ अलग-अलग तरह की भावनाएं जुड़ी होती हैं। शहरी भारत में, साड़ी किशोरावस्था से वयस्कता की दहलीज पर कदम रखने का प्रतीक है, जब एक वयस्क युवती अपने स्कूल के विदाई समारोह में साड़ी पहनने को तत्पर होती है। साड़ी किसी दुल्हन के साजो-सामान का महत्वपूर्ण भाग होती है, और संतान के जन्म के अवसर पर भी उपहार में दी जाती है। हाथ से बनी शानदार साड़ियों को उनसे जुड़ी यादों और भावनात्मक लगाव के कारण विरासत के रूप में सहेज कर रखा जाता है, जो दादी-नानी से लेकर मां और बेटियों तक जाती हैं। गरिमापूर्ण अंदाज से बांधी गई साड़ी को पूरे भारत में आतिथ्य, विमानन, स्वास्थ्य सेवा और अन्य उद्योगों में कार्यरत महिलाओं के विशिष्ट यूनिफॉर्म के रूप में भी पहचाना जाता है, जो विनम्रता, कुशलता और सुरुचि का संदेश देती है। भारतीय संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों की प्रतीक साड़ी राजनीति के क्षेत्र से जुड़ी नेत्रियों की भी पसंदीदा पोशाक है। बहुउपयोगी साड़ी विभिन्न अवतारों: शक्ति और श्रेष्ठता, आकर्षक और मनोहर, सुरुचिपूर्ण एवं विनम्र, और विरासत व संस्कृति का मूर्त रूप है।
‘साड़ी’ शब्द की उत्पत्ति दक्षिण-पश्चिमी द्रविड़ शब्द ‘सायर’ से हुई है। साड़ी के अन्य स्वदेशी नामों में केरल में पुडवा, तमिलनाडु में सेलाई, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश में लुगडा, उत्तर प्रदेश में लुगड़ी, उड़ीसा में सारही आदि शामिल हैं। साड़ी एक आयताकार लंबाई वाला कपड़ा होता है, जिसकी लंबाई 4 से 9 गज तक और चौड़ाई लगभग एक गज होती है। अपनी सिलाई रहित गुणवत्ता के कारण साड़ी हिंदू संस्कृति द्वारा निर्धारित शुद्धता के सिद्धांतों के अनुरूप है।
अनेक प्रकार के कपड़ों और टेक्स्चर में फ्लूइड साड़ी उपलब्ध है और इसे भारत के विभिन्न राज्यों से उपजी विभिन्न शैलियों में लपेटा (ड्रेप) जाता है। भारत की साड़ियों को क्षेत्र विशेष की विशिष्ट निर्माण तकनीक के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। पारंपरिक साड़ियां विविध प्रकार की होती हैं, जिनमें हाथ से बुनी हुई, कशीदाकारी, रेसिस्ट-डाई या प्रिंटेड शामिल हैं। उत्कृष्ट हथकरघा साड़ियों में उत्तर प्रदेश की बनारस ब्रोकेड, पश्चिम बंगाल की जामदानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, महाराष्ट्र की पैठाणी, गुजरात की अश्वली, मध्य प्रदेश की चंदेरी और माहेश्वरी आदि शामिल हैं। कशीदाकारी वाली साड़ियों में उत्तर प्रदेश की चिकनकारी, पश्चिम बंगाल की कांथा और कर्नाटक की इलकल कसुती साड़ी शामिल हैं। परिष्कृत रेजिस्ट-डाइड साड़ियों में गुजरात से पटोला जैसे यार्न रेसिस्ट-डाई से लेकर ओडिशा से बंधा, आंध्र प्रदेश से पोचमपल्ली से लेकर राजस्थान और गुजरात से बंधनी जैसी फैब्रिक रेजिस्ट-डाइड की आकर्षक साड़ियां हैं। इस लपेटे या ड्रेप किए जाने वाले परिधान में आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान जैसे क्षेत्रों की विभिन्न प्रकार की ब्लॉक प्रिंटेड साड़ियां की व्यापक रेंज शामिल हैं।
इस बात पर गौर करना दिलचस्प होगा कि पूरे भारत में क्षेत्रीय, जातीय और जनजातीय समुदायों से विभिन्न साड़ी शैलियों और उसे लपेटने या ड्रेप करने की विधियों की उत्पत्ति हुई है। आयताकार साड़ी को तीन भागों में विभाजित किया गया है, फील्ड, लंबाई के मुताबिक बॉर्डर और अंतिम सिरा, इसे विभिन्न तरीकों से लपेटे जाने पर यह टू-डायमेंशनल कपड़े को शानदार ढंग से एक व्यवस्थित परिधान में बदल देता है। एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी मानवविज्ञानी, शॉन्तेल बुलॉन्जे ने भारत में प्रचलित 100 से अधिक विभिन्न साड़ी लपेटने (ड्रैपिंग) की शैलियों को सूचीबद्ध किया है। ड्रैपिंग की कुछ लोकप्रिय शैलियों में निवी, जिसमें चुन्नट या प्लीट्स को सामने की तरफ टक किया जाता है और अंतिम सिरे या एंड-पीस को प्लीटेड कर बाएं कंधे पर लपेटकर पीछे की ओर लटकाया जाता है; महाराष्ट्र की काच्छा शैली, जिसमें पीछे की चुन्नट के साथ फोर्क्ड ट्राउजर जैसा प्रभाव उत्पन्न होता है; उत्तरी शैली जिसमें अंतिम सिरे या एंड-पीस को पीछे से आगे की ओर छाती को ढंकते हुए लपेटा जाता है; और द्रविड़ शैली, जिसमें कमर के चारों ओर चुन्नट को झालर की तरह लपेटा जाता है; शामिल हैं। वस्त्र इतिहासकार रता कपूर चिश्ती ने युवा पीढ़ी को साड़ी पहनने के प्रति आकर्षित करने के लिए साड़ी को 108 तरीकों से लपेटने की कला में महारत हासिल की है, जिससे यह गाउन, स्कर्ट या पलाज़ो की तरह दिखाई देती है।
पारंपरिक परिधान से फैशनेबल पोशाक तक की साड़ी की यात्रा भारतीय वस्त्रकारों द्वारा निर्मित अनेक साड़ियों के साथ देखी जा सकती है, जिन्होंने कपड़े, मूल्य-वर्धन, ड्रेपिंग की शैली और ब्लाउज के साथ प्रयोग किए हैं। कपड़े के आयताकार टुकड़े के साथ प्रयोग करने की काफी संभावनाएं हैं और इसमें हुए प्रभावशाली बदलावों ने युवतियों में इनके प्रति रुचि पैदा की है और वह साड़ी में सहज महसूस कर रही हैं और अपनी खुद की स्टाइल स्टेटमेंट बना रही हैं। परंपरा और आधुनिकता का मिश्रण-साड़ी हमेशा शाश्वत रहेगी और दुनिया के लिए एक प्रतिष्ठित भारतीय पोशाक बनी रहेगी।