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राष्ट्रधर्म पत्रिका के पूर्व सम्‍पादक आनन्द मिश्र ‘अभय’ का न‍िधन



राष्‍ट्रधर्म में प्रयोगधर्मी सम्‍पादक कहे जाने वाले ‘अभय’ जी का सम्पादन की दृष्‍ट‍ि से सर्वाधिक लम्बा कार्यकाल रहा

लखनऊ (टेलीस्कोप टुडे संवाददाता)। राष्ट्रधर्म पत्रिका के एक प्रयोगधर्मी पूर्व सम्‍पादक आनन्द मिश्र ‘अभय’ का गुरुवार रात उनके बाराबंकी स्थित आवास पर देहांत हो गया। वे लम्‍बे समय से बीमार चल रहे थे। जीवन पर्यन्त उन्होंने अपनी लेखनी से गम्‍भीर विषयों पर प्रहार किया। वे पाठकों की बौद्धिक सम्पदा को बढ़ाने वाले विषयों को पठनीय तरीके से पत्रिकाओं में प्रकाशित करते थे। ‘अभय’ जी का ‘राष्ट्रधर्म’ के सम्‍पादन की दृष्टि से सर्वाधिक लम्बा कार्यकाल (सितम्बर, 1997 से अगस्त, 2016 तक) रहा है। उनकी मृत्यु की सूचना मिलते ही शोक की लहर छा गई। सूचना मिलने के बाद राष्‍ट्रधर्म प्रकाशन समूह के निदेशक एवं राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के सह क्षेत्र प्रचार प्रमुख मनोजकान्‍त, राष्‍ट्रधर्म के प्रभारी निदेशक सर्वेश चंद्र द्विवेदी, सम्‍पादक प्रो. ओमप्रकाश पाण्डेय एवं प्रबंधक पवन पुत्र बादल सहित समस्‍त कर्म‍ियों व पदाध‍िकार‍ियों ने अपनी शोक संवेदना व्‍यक्‍त की। लखनऊ के राजेंद्रनगर स्थित राष्ट्रधर्म प्रकाशन संस्थान में उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई।

जीवन के 93 बसंत देखने वाले अभय जी का जन्म ग्राम सहजनपुर (हरदोई, उ.प्र.) में 4 दिसम्बर, 1931 (मार्गशीर्ष शुक्ल 10, विक्रमी संवत् 1988) को साहित्यप्रेमी रामनारायण मिश्र ‘विशारद’ तथा रामदेवी के घर में हुआ था। बी.ए. तथा ‘साहित्य रत्न’ की शिक्षा पाकर वे सरकारी सेवा में आ गये। प्रदेश शासन में विभिन्न जिम्मेदारियाँ निभाते हुए 31 दिसम्बर 1989 को वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए। लेखन में रुचि होने के कारण सेवानिवृत्ति के बाद वे विश्व संवाद केन्द्र, लखनऊ से जुड़े। 1997 में उन्हें राष्ट्रधर्म के सम्पादन का गुरुतर दायित्व दिया गया।

राष्‍ट्रधर्म में सर्वांगीण दृष्टि से उपयोगी और नयी-नयी रोचक सामग्री के प्रकाशन की ओर उनकी सजगता उल्लेखनीय रही। उनके सम्‍पादकीय भी जनमानस का ध्यान आकृष्ट करने में बेहद समर्थ थे। अरुच‍िकर एवं बोझिल सामग्री से वे सप्रयत्‍न बचते थे, लेकिन रुच‍िकर सामग्री को आगे बढ़ाने में पीछे भी नहीं रहते थे। अभय जी को हिन्दी, संस्कृत, अँग्रेजी तथा उर्दू का अच्छा ज्ञान है। सम्पादन करते समय कोई तथ्य गलत न चला जाये, इसका वे विशेष ध्यान रखते हैं। देश-धर्म पर हो रहे हमलों और हिन्दुओं की उदासीनता से वे बहुत खिन्न रहते हैं; अपने सम्पादकीयों में वे इसके बारे में बहुत उग्रता से लिखते हैं। वर्तमान चुनाव प्रणाली को वे अधिकांश समस्याओं की जड़ मानते हैं।

मूलतः: ‘अभय’ जी राजस्व-सेवा (प्रशासनिक) से निवृत्त होकर आये थे, लेकिन शीघ्र ही उन्होंने ‘राष्‍ट्रधर्म’ की प्रकृति के अनुरूप ही सामग्री के चयन को अपनी प्राथमिकता में सम्मिलित कर लिया। प्रशासनिक या अन्य क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्तियों की पद-प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए भी वे उनके अरुचिकर, बोझिल और नीरस लेखों को विनम्रता से लौटा दिया करते थे। भारी-भरकम सन्दर्भ ग्रन्थों का हवाला देकर लिखे गये नये प्राध्यापकों के शोध लेखों की अपेक्षा, वे उन्‍हीं लेखों को छापते थे, जिसे परिवार और समाज के सामान्य व्यक्ति भी पढ़कर सम्पूर्ण सन्देश सुलभता से पा सकें।

एक बार एक लेखक ने ‘अभय’ जी को वैदिक रुद्राभिषेक से सम्बद्ध एक शोध पूर्ण गम्भीर लेख दिया गया। उसे उन्होंने यह कहकर वापस कर दिया कि ‘राष्ट्रधर्म’ के पाठक के लिए यह बहुत बोझिल रहेगा, लेकिन जब वही लेखक उन्‍हें पेरिस-प्रवास काल से सम्बद्ध रुचिकर सामग्री पेरिस से ही भेजता रहा था, तो उसे उन्होंने बड़ी रुचि से प्रकाशित किया।

‘सरस्वती’ के यशस्वी सम्पादक- प्रवर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की इस आदर्श मान्यता का अनुकरण ही किसी सफल संपादक की कसौटी है कि ‘बिना किसी दबाव, लगाव, सम्बन्धों के निर्वाह या प्रलोभन में पड़े पत्रिका में वही सामग्री दी जानी चाहिए, जो पाठकों के लिए – उपादेय हो, परिवार का प्रत्येक सदस्य जिसे निःसंकोच पढ़ सके और जो मानवीय मूल्यों को पहचानने में सहायक सिद्ध हो। सामग्री के चयन में संपादक को लेखक का चेहरा सामने न रखकर पाठक का चेहरा सामने रखना चाहिए।’ इस दृष्टिकोण से वे सफल संपादक थे।

उन्होंने बच्चों और युवाओं की अपनी भारतीय पौराणिक उपलब्धियों में रोचकता पैदा करने के लिए अनेक प्रकार से लेखन किया। समय के हस्ताक्षर (दो भाग में), हमारे वैज्ञानिक (दो भाग में), शिवा बावनी की टीका एवं हमारे दिग्विजयी पूर्वज सहित कई पुस्तकों की रचना की।

अभय जी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे। वर्ष 2003 में साहित्य मंडल (श्रीनाथद्वारा, राजस्थान) ने उन्हें ‘सम्पादक शिरोमणि’ की उपाधि दी। श्री छोटी खाटू पुस्तकालय (राजस्थान) से 2007 में दीनदयाल स्मृति सम्मान प्राप्त हुआ। वर्ष 2011 में मध्‍य प्रदेश शासन ने भी उन्हें सम्मानित किया था।