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कैलेंडर के साथ समरसता की ओर बढ़े समाज

-डॉ. एस.के. गोपाल

नया साल आता है तो हम सब कुछ नया चाहने लगते हैं। नई शुरुआत, नई सफलता, नई उम्मीदें, लेकिन बहुत कम लोग यह सोचते हैं कि समाज भी नया हो सकता है अगर हम अपने सोचने का ढंग बदल लें। आज हम तकनीक में आगे बढ़ गए हैं पर दिलों में दूरी बढ़ती जा रही है। हम एक दूसरे के बहुत पास रहते हुए भी भीतर से बहुत दूर हो गए हैं। शायद इसलिए अब नए वर्ष में सबसे बड़ा संकल्प यही होना चाहिए- समाज को फिर से जोड़ने का। कभी ठहरकर सोचा है कि जब न अस्पताल थे, न डॉक्टर, न मशीनें तब बच्चे की नाभि कौन काटता था? पिता से पहले उस नवजात को सबसे पहला स्पर्श किसका मिलता था? ये सवाल आज हमें असहज लगते हैं क्योंकि इनके जवाब हमें उस समाज की याद दिलाते हैं जहाँ जीवन अकेले नहीं जिया जाता था। वहाँ हर सुख-दुख साझा होता था, हर संस्कार सामूहिक होता था।

हमारे पूर्वजों का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक समाज के सहारे चलता था। मुंडन के समय बच्चे के सिर पर सबसे पहला हाथ किसका लगे, यह तय होता था। विवाह के मंडप में नाई और धोबन की उपस्थिति केवल परंपरा नहीं थी बल्कि भरोसे की पहचान थी। कन्या का पिता आग्रह करके वर के पिता से उनके लिए साड़ी की माँग करता था। यह कोई सौदा नहीं बल्कि सम्मान और अपनत्व का भाव था। आज भी छठ व्रत वाल्मीकि समाज द्वारा बनाए गए सूप के बिना अधूरा माना जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि पूजा भी तब पूरी होती है जब समाज साथ हो। 

यही भावना रोजमर्रा के जीवन में भी थी। कुएँ से पानी कौन लाता था? भोज के लिए पत्तल कौन बनाता था? कपड़े कौन धोता था? ये सब सवाल काम के नहीं, रिश्तों के थे। जेठ की जलती दोपहरी में मिट्टी की सुराही किसके हाथों से बनती थी, जिससे सिर्फ गला नहीं, मन भी ठंडा होता था? झोपड़ियाँ कौन बनाता था? खेतों में दिन-रात पसीना बहाकर अन्न कौन उगाता था और आपके घर तक पहुँचाता था? इन सबके पीछे केवल मेहनत नहीं, जिम्मेदारी और अपनापन था।

डोली को अपने कंधों पर मीलों दूर कौन ले जाता था? और सच तो यह है कि जब तक वे लोग जीवित रहते थे, किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि आपकी बेटी की ओर बुरी नज़र से देखे। यह सुरक्षा कानून से नहीं आती थी, यह समाज के नैतिक बंधन से आती थी। जब जीवन की अंतिम यात्रा आती थी तब कौन आगे बढ़कर कंधा देता था? कौन चिता सजाने में, लकड़ी जुटाने में, अग्नि देने में साथ देता था? मृत्यु भी अकेले नहीं होती थी। उस समय भी समाज चुपचाप साथ खड़ा रहता था।

जन्म से लेकर मरण तक, हर चरण में समाज के सभी वर्ग एक-दूसरे को छूते थे, एक-दूसरे पर निर्भर थे और एक-दूसरे का सम्मान करते थे। फिर यह बात कैसे फैलाई गई कि सनातन समाज की आत्मा छुआछूत थी? सच यह है कि समाज को तोड़ने वाली यह सोच बाद के दौर में जानबूझकर फैलाई गई। जातियाँ थीं, इससे इनकार नहीं लेकिन उनके बीच नफ़रत नहीं थी। एक मौन अपनापन था जो बिना बोले सब कुछ कह देता था। अगर समाज मूल से ही भेदभाव वाला होता तो भगवान श्रीराम शबरी के जूठे बेर कभी स्वीकार नहीं करते। निषादराज, आदिवासी और वनवासी उनके जीवन यात्रा के सहचर न बनते। रामकथा हमें सिखाती है कि धर्म का असली अर्थ जोड़ना है। वह बताती है कि करुणा, कर्तव्य और सहयोग ही हमारी परंपरा की असली पहचान हैं। धर्म दीवार नहीं बनाता, वह पुल बनाता है।

नया वर्ष हमें मौका देता है कि हम खुद से ईमानदारी से सवाल करें। हमने किन झूठी बातों को सच मान लिया? किन सच्चाइयों को हमने सुविधा से भुला दिया? हम जाति के खाँचों में उलझते रहे और समाज की साझी विरासत हाथ से फिसलती चली गई। इस नए वर्ष में हमें फिर से उसी समाज की ओर लौटने का संकल्प लेना होगा जहाँ हर इंसान दूसरे के लिए ज़रूरी था। जहाँ सम्मान जन्म से नहीं, कर्म से मिलता था। जहाँ धर्म का अर्थ जोड़ना था, तोड़ना नहीं। आइए, इस नए साल पर संकल्प लें- विभाजन नहीं, समरसता का। डर नहीं, भरोसे का। दूरी नहीं, सहभागिता का क्योंकि धर्म जोड़ता है, संस्कार जोड़ते हैं और एकजुट समाज ही मजबूत राष्ट्र की नींव बनता है।

(लेखक डॉ. एस.के. गोपाल स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजशास्त्री हैं और ये उनके निजी विचार हैं)