प्रहलाद सबनानी
अमेरिका में वर्ष 2023 में 3 बैंक (सिलिकन वैली बैंक, सिगनेचर बैंक, फर्स्ट रिपब्लिक बैंक) डूब गए थे एवं वर्ष 2024 में भी एक बैंक (रिपब्लिक फर्स्ट बैंक) डूब गया है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अमेरिकी केंद्रीय बैंक, यूएस फेडरल रिजर्व, द्वारा ब्याज दरों में की गई वृद्धि के चलते बैंकों के असफल होने की यह परेशानी बहुत बढ़ गई है।
सिलिकन वैली बैंक ने कई तकनीकी स्टार्ट अप एवं उद्यमी पूंजी फर्म को ऋण प्रदान किया था। इस बैंक के पास वर्ष 2022 के अंत में 20,900 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सम्पत्तियां थी और यह अमेरिका के बड़े आकार के बैंकों में गिना जाता था और हाल ही के समय में डूबने वाले बैंकों में दूसरा सबसे बड़ा बैंक माना जा रहा है। इसी प्रकार, सिगनेचर बैंक ने न्यूयॉर्क कानूनी फर्म एवं अचल सम्पत्ति कम्पनियों को ऋण सुविधाएं प्रदान कर रखी थीं। इस बैंक के पास वर्ष 2022 के अंत में 11,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की सम्पत्ति थी और अमेरिका में हाल ही के समय में डूबने वाले बड़े बैंकों में चौथे स्थान पर आता है। 31 जनवरी 2024 तक के आंकड़ों के अनुसार, रिपब्लिक फर्स्ट बैंक की कुल सम्पत्तियां 600 करोड़ अमेरिकी डॉलर एवं जमाराशि 400 करोड़ अमेरिकी डॉलर थीं। न्यू जर्सी, पेनसिल्वेनिया और न्यूयॉर्क में बैंक की 32 शाखाएं थीं जिन्हें अब फुल्टन बैंक की शाखाओं के रूप में जाना जाएगा क्योंकि फुल्टन बैंक ने इस बैंक की सम्पत्तियों एवं जमाराशि को खरीद लिया है।
1980 व 1995 के बीच अमेरिका में 2,900 बैंक असफल हुए :
पीयू रिसर्च संस्थान के अनुसार, चार शताब्दी पूर्व, वर्ष 1980 एवं वर्ष 1995 के बीच अमेरिका में 2,900 बैंक असफल हुए थे। इन बैंकों के पास संयुक्त रूप से 2.2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की सम्पत्ति थी। इसी प्रकार, वर्ष 2007 से वर्ष 2014 के बीच अमेरिका में 500 बैंक, जिनकी कुल सम्पत्ति 95,900 करोड़ अमेरिकी डॉलर थी, असफल हो गए थे। ऐसा कहा जाता है कि विशेष परिस्थितियों को छोड़कर अमेरिका में सामान्यतः बैंक असफल नहीं होते हैं। परंतु, इस सम्बंध में अमेरिकी रिकार्ड कुछ और ही कहानी कह रहा है। वर्ष 1941 से वर्ष 1979 के बीच, अमेरिका में औसतन 5.3 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं। वर्ष 1996 से वर्ष 2006 के बीच औसतन 4.3 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं एवं वर्ष 2015 से वर्ष 2022 के बीच औसतन 3.6 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं। वर्ष 2022 में अमेरिकी बैंकों को 62,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक्सान हुआ था। इसके पूर्व, वर्ष 1921 से वर्ष 1929 के बीच अमेरिका में औसतन 635 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं। यह अधिकतर छोटे आकार के बैंक एवं ग्रामीण बैंक थे और यह एक ही शाखा वाले बैंक थे। अमेरिका में आई भारी मंदी के दौरान वर्ष 1930 से वर्ष 1933 के बीच 9,000 से अधिक बैंक असफल हुए थे। इनमें कई बड़े आकार के शहरों में कार्यरत बैंक भी शामिल थे और उस समय इन बैंकों में जमाकर्ताओं की भारी भरकम राशि डूब गई थी। वर्ष 1934 से वर्ष 1940 के बीच अमेरिका में औसतन 50.7 बैंक प्रतिवर्ष बंद किए गए थे।
अमेरिकी बांड में निवेश की बाजार में कीमत काफी कम हुई :
अमेरिका में इतनी भारी मात्रा में बैंकों के असफल होने के कारणों में मुख्य रूप से शामिल है कि वहां छोटे छोटे बैंकों की संख्या बहुत अधिक होना है। बैकों के ग्राहक बहुत पढ़े लिखे और समझदार हैं। बैंक में आई छोटी से छोटी परेशानी में भी वे बैंक से तुरंत अपनी जमाराशि को निकालने पहुंच जाते हैं, जबकि बैंक द्वारा इस राशि से खड़ी की गई सम्पत्ति को रोकड़ में परिवर्तित करने में कुछ समय लगता है। इस बीच बैंक यदि जमाकर्ता को जमाराशि का भुगतान करने में असफल रहता है तो उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है और इस प्रकार बैंक असफल हो जाता है। कई बार बैंकों द्वारा किए गए निवेश (सम्पत्ति) की बाजार में कीमत भी कम हो जाती है, इससे भी बैंकें अपने जमाकर्ताओं को जमाराशि का भुगतान करने में असफल हो जाते हैं। अभी हाल ही में अमेरिका में मुद्रा स्फीति की दर को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ब्याज दरों में लगातार बढ़ौतरी की गई है, जिससे इन बैकों द्वारा अमेरिकी बांड में किये गए निवेश की बाजार में कीमत अत्यधिक कम हो गई है। अब इन बैंकों को बांड में निवेश की बाजार कीमत कम होने के स्तर तक प्रावधान करने को कहा गया है और यह राशि इन बैकों के पास उपलब्ध ही नहीं है, जिसके चलते भी यह बैंक असफल हो रहे हैं। एक सर्वे में यह बताया गया है कि आने वाले समय में अमेरिका में 190 अन्य बैंकों के असफल होने का खतरा मंडरा रहा है क्योंकि ब्याज दरों के बढ़ने से ऋण की मांग बहुत कम हो गई है। विभिन्न कम्पनियों ने अपने विस्तार की योजनाओं को रोक दिया है, इससे निर्माण की गतिविधियों में कमी आई है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व, का पूरा ध्यान केवल मुद्रा स्फीति को कम करने पर है एवं अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विकास दर को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उत्पादों की मांग कम हो और मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में लाया जा सके। इसके चलते कई कम्पनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी कर रही है एवं देश में युवा वर्ग बेरोजगार हो रहा है।
मुद्रा स्फीति की समस्या भारत में कभी रही ही नहीं :
पूँजीवाद पर आधारित आर्थिक नीतियाँ अमेरिका में बैंकिंग क्षेत्र में उत्पन्न समस्याओं का हल नहीं निकाल पा रही हैं। अब तो अमेरिकी अर्थशास्त्री भी मानने लगे हैं कि आर्थिक समस्याओं के संदर्भ में साम्यवाद के बाद पूँजीवाद भी असफल होता दिखाई दे रहा है एवं आज विश्व को एक नए आर्थिक मॉडल की आवश्यकता है। इन अमेरिकी अर्थशास्त्रियों का स्पष्ट इशारा भारत की ओर है क्योंकि इस बीच भारतीय आर्थिक दर्शन पर आधारित मॉडल भारत में आर्थिक समस्याओं को हल करने में सफल रहा है। अमेरिका में बैकों के असफल होने की समस्या मुख्यतः मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ब्याज दरों में की गई वृद्धि के कारण उत्पन्न हुई हैं। दरअसल, मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से उत्पादों की मांग को कम करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करने के स्थान पर बाजार में उत्पादों की उपलब्धता बढ़ाई जानी चाहिए ताकि इन उत्पादों की कीमत को कम रखा जा सके। प्राचीन भारत में उत्पादों की उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था, जिसके कारण मुद्रा स्फीति की समस्या भारत में कभी रही ही नहीं है। बल्कि भारत में उत्पादों की प्रचुरता के चलते समय-समय पर उत्पादों की कीमतें कम होती रही हैं। ग्रामीण इलाकों की मंडियों में आसपास ग्रामों में निवास करने वाले ग्रामीण व्यापारी एवं उत्पादक अपने उत्पादों को बेचने हेतु एकत्रित होते थे, सायंकाल तक यदि उनके उत्पाद नहीं बिक पाते थे तो वे इन उत्पादों को कम दामों पर बेचना प्रारम्भ कर देते थे ताकि गांव जाने के पूर्व उनके समस्त उत्पाद बिक जाएं एवं उन्हें इन उत्पादों को अपने गांव वापिस नहीं ले जाना पड़े। इस प्रकार भी विभिन्न उत्पादों की भारतीय मंडियों में मांग से अधिक आपूर्ति बनी रहती थी। अतः उत्पादों की कमी के स्थान पर उत्पादों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता पर ध्यान दिया जाता था, इससे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मुद्रा स्फीति का जिक्र ही नहीं मिलता है। दूसरे, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक मॉडल एवं नियमों को बहुत जटिल बना दिया गया है। इससे भी कई प्रकार की आर्थिक समस्याएं खड़ी हो रही है जिसका हल विकसित देश नहीं निकाल पा रहे हैं।
लेखक : प्रहलाद सबनानी (सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक)
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