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समाज पानी तो फ़िल्टर कर पीता है लेकिन खून नहीं

(राजनीतिक रणनीतिकार अतुल मालिकराम)

कैदियों के प्रति समाज का नज़रिया अपराधी या पीड़ित के बीच नहीं बंटा हुआ है। यह एक कटु सत्य है कि समाज के लिए एक कैदी सिर्फ अपराधी हो सकता है पीड़ित नहीं। यही सोच समाज पर भारी पड़ रही है और न केवल अपराध बल्कि अपराधियों को भी जन्म दे रही है।

भारतीय समाज में कैदियों के प्रति नजरिया हमेशा बेहद जटिल और असंवेदनशील रहा है। जेलों में बंद कैदियों को हमारा समाज सिर्फ एक घोर अपराधी के रूप में ही देखता आया है, भले उनपर अपराध साबित हुआ हो या नहीं। यह नजरिया ना केवल कैदियों के पुनर्वास को मुश्किल बनाता है बल्कि उनके जीवन को और भी अधिक कठिन बना देता है। जिससे वह खुद को समाज से अलग किए गए व्यक्ति के रूप में देखने लगते हैं। किसी छोटे गुनाह के लिए भी जब हमारा समाज एक बंदी को स्वीकार नहीं करता तो जाहिर तौर पर वह खुद को एक बहिष्कृत शख्स के रूप में देखने लगता है। निश्चित रूप से यह स्थिति उसे सही रास्ते पर लाने के बजाय गलत रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए मजबूर करती है। इस प्रकार समाज की अस्वीकृति और तिरस्कार से तंग व खिन्न आकर वह धीरे-धीरे छोटे गुनाह से बड़े गुनाह की ओर कदम बढ़ाने लगता है और एक समय ऐसा आता है जब वह एक बड़े अपराधी के रूप में हमारे समाज के सामने खड़ा होता है। निश्चित रूप से इसके लिए वह व्यक्ति तो जिम्मेदार है ही लेकिन समाज का तिरस्कार भी उसे एक बड़ा अपराधी बनने में अपनी 100 फ़ीसदी भूमिका निभाता है।

कहा जाता है कि यह समाज पानी तो फिल्टर करके पीता है लेकिन खून पीने में किसी प्रकार के फिल्टर का इस्तेमाल नहीं करता। यह कथन समाज की उस क्रूरता को भी दर्शाता है जिसमें वह किसी भी व्यक्ति को बिना किसी ठोस सबूत के अपराधी मान लेता है और उसे सजा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना। समाज के दोहरे चरित्र और मापदंड के चलते कैदियों की स्थिति सही दिशा में बढ़ने के बजाय और भी दयनीय हो गई है। कैदियों के प्रति समाज का नज़रिया अपराधी या पीड़ित के बीच नहीं बंटा हुआ है। यह एक कटु सत्य है कि समाज के लिए एक कैदी सिर्फ अपराधी हो सकता है पीड़ित नहीं। यही सोच समाज पर भारी पड़ रही है और न केवल अपराध बल्कि अपराधियों को भी जन्म दे रही है। कैदियों के प्रति इस तरह का नकारात्मक दृष्टिकोण जल्द से जल्द बदलने की आवश्यकता है।

एक सामाजिक और जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमें यह भी समझने की जरूरत है कि हर कैदी एक इंसान भी होता है और उसे भी जीने का अधिकार है। पुनर्वास की प्रक्रिया में सहयोग कर के एक बेहतर समाज के निर्माण को अंजाम देने की आवश्यकता है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम प्रत्येक कैदी को एक नए अवसर देने के लिए तैयार रहें ताकि वह अपने जीवन को सुधार सकें और एक सम्मानित नागरिक के रूप में पुनः समाज का हिस्सा बन सके।

कुल मिलाकर देखें तो यह पूरी तरह समाज की सोच और नजरिए पर निर्भर करता है कि वह एक अपराधी को अपराध के रास्ते पर आगे बढ़ाना चाहता है या उसे सुधारने में मदद करना चाहता है। हमें अपनी सोच को बदलने की जरूरत है ताकि एक न्यायपूर्ण और दयालु समाज का निर्माण किया जा सके।

(लेखक अतुल मलिकराम राजनीतिक रणनीतिकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)