Thursday , November 14 2024

आसमाँ को ओढ़ता और धरती बिछाता हूँ

(संदर्भ : राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय नेता अनुपम मिश्र ने इस कविता की रचना करते हुए लिखा है कि यह कविता उन लोगों के जीवन का एक अंश मात्र भी नहीं है जो गाँव से शहर अपने परिवार के लिए रोटी कमाने आते हैं और बिना काम पाए अधिकतर खाली हाथ वापस घर चले जाते हैं)

रोज़ मुँह अंधेरे ही गाँव से शहर को काम पर चला आता हूँ।
ढाई कोस पैदल फिर रेल पकड़ पाता हूँ।

ज़ोर जिस्म का लगाकर सिर्फ़ लटक पाता हूँ।
कई कोस का सफ़र रोज़ ऐसे ही बिताता हूँ।

थूकी हुई छीटों को राह भर छुड़ाता हूँ।
घंटों का सफ़र यूँ ही झूलकर बिताता हूँ।

दिनभर काम पाने की कोशिश में दर-दर भटक आता हूँ।
फिर थक कर किसी कोने में फटा अंगौछा बिछाता हूँ।

चटनी और बाजरे की रोटी को सहलाता हूँ।
बिन खाए सिर्फ गंध से भूख को दबाता हूँ।

साँझ ढले सुबह का सिलसिला फिर मैं दोहराता हूँ।
और देर रात चोरी से झोपड़ी में सिर मैं घुसाता हूँ।

भूख से बिलखती मुनिया को चटनी से बाजरे की रोटी खिलाता हूँ।
पर सोहना सब समझ जाती है और मै नज़रें चुराता हूँ।

सामने सोहना एक लोटा पानी लेकर खड़ी थी।
आज वह भी भूख से लड़ने की ज़िद पर अड़ी थी।

आसमा में एक सितारा रोज़ मुस्कराता है।
लाख रोकूँ पर आँख से अश्क छलक जाता है।

भूख से बेहाल मैं आज फिर आसमाँ को ओढ़ता और धरती बिछाता हूँ।
आसमाँ को ओढ़ता और धरती बिछाता हूँ।