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गोदरेज इंडस्ट्रीज़ ग्रुप : दिवाली कैंपेन ‘कांता दीदी’ ने समावेशन पर बातचीत को दी नई दिशा

मुंबई (टेलीस्कोप टुडे संवाददाता)। इस दिवाली, गोदरेज इंडस्ट्रीज़ ग्रुप की अपनी मीडिया प्रॉपर्टी ‘Godrej L’Affaire’ ने, जो किसी खास ब्रांड तक सीमित नहीं है, अपने #CelebratingAcceptance कैंपेन को ‘कांता दीदी’ नामक एक फिल्म के साथ आगे बढ़ाया है। यह फिल्म रोज़मर्रा के जीवन में मौजूद पूर्वाग्रहों को चुनौती देती है और यह परिभाषित करती है कि आज के समय में स्वीकार्यता का असली मतलब क्या हो सकता है। क्योंकि स्वीकार्यता कोई जागरूकता से मिलने वाला विशेषाधिकार नहीं, बल्कि मानवता का एक सहज व्यवहार है।

फिल्म एक घरेलू परिवेश में घटती है। यह एक घरेलू सहायिका और एक समलैंगिक (queer) जोड़े के बीच की कहानी है, जो यह दर्शाती है कि समझदारी विचारधाराओं से नहीं, बल्कि सहज मानवीय अनुभवों से आती है। एक संकोच भरे पल से शुरू हुई बातचीत, धीरे-धीरे समझ और स्वीकृति की एक खूबसूरत कहानी में बदल जाती है।

कहानी के केंद्र में हैं कांता दीदी, एक घरेलू सहायिका जो पहली बार किसी समलैंगिक जोड़े के घर काम करने जाती हैं। वहां उनकी मुलाक़ात कपिल से होती है, जो मोहल्ले में नया है और घरेलू मदद की तलाश में है। कांता दीदी शुरू में मान लेती हैं कि कपिल की पत्नी या कोई महिला पार्टनर होगी, जिसके साथ वह लिव-इन रिलेशनशिप में है, लेकिन हकीकत इससे अलग होती है। कपिल अपनी पहचान के बारे में बताने से हिचकिचाता है, पर कांता दीदी की गर्मजोशी उसकी सारी झिझक को दूर कर देती है।

जब कपिल खुलकर अपनी बात कहता है, तो दोनों के बीच एक दिल छू लेने वाली बातचीत होती है। कांता दीदी की सरल प्रतिक्रिया, “अच्छा, बॉयफ्रेंड है? तो मेरे को क्या?”, कपिल के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है। उनका यह सहज नज़रिया उनके जीवन दर्शन को दर्शाता है: जियो और जीने दो। प्यार को किसी बंधन में नहीं बांधा जा सकता, क्योंकि यह एक बुनियादी मानवीय भावना है जिसे हर रूप में अपनाना चाहिए। कांता दीदी के व्यवहार से कपिल को बहुत सुकून मिलता है। उनकी सहज स्वीकार्यता ही कपिल को गर्व और आत्मविश्वास से भर देती है। यह कहानी दिखाती है कि बदलाव किसी बड़े आंदोलन से नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में इंसानी रिश्तों की सच्ची और छोटी-छोटी झलकियों से आता है।

गोदरेज की पिछली दिवाली फिल्मों की ही तरह, यह फिल्म भी #CelebratingAcceptance अभियान को जारी रखते हुए यह स्थापित करती है कि सहानुभूति की नींव हमारे सबसे निजी और घरेलू जीवन में ही पड़ती है। फिल्म में दिखाया गया है कि कांता दीदी जैसे लोग, जो समलैंगिक जीवन को सोशल मीडिया और अपने दैनिक अनुभवों के ज़रिए समझते हैं, जब सहजता से यह कह सकती हैं- “आपके वो प्राइड परेड में क्या मस्त दिखते हैं सब लोग रेनबो फ्लैग के साथ!”, तो फिर दूसरों के लिए इसे स्वीकारना इतना कठिन क्यों है?

इस फिल्म की परिकल्पना Agency09 ने की है, यह फिल्म, दर्शकों को इस एहसास के साथ छोड़ती है कि यह दिवाली जागरूकता के ज़रिए, प्रेम में एकता से और भी ख़ास बन सकती है। यह समाज से आग्रह करती है कि वह प्रेम के विभिन्न रूपों पर #honestconversations (ईमानदार और खुली बातचीत) शुरू करें, फिर चाहे वे आपकी हाउस हेल्प, सहायक कर्मचारी हों या आपके दोस्त और परिवार। जैसा कि कांता दीदी सही कहती हैं, ‘रिवाज़ों से रिश्ते नहीं बनते, हम रिश्तों से रिवाज़ बनाते हैं।’ यह बात मन को गहराई से छूती है, हमें याद दिलाती है कि हमारे उत्सवों को रस्में नहीं, बल्कि हमारे रिश्ते परिभाषित करते हैं।

इस कैंपेन पर टिप्पणी करते हुए, परमेश शाहनी (प्रमुख, गोदरेज डीईआई लैब) ने कहा, “गोदरेज डीईआई लैब में हमें यह बार-बार देखने को मिला है कि दृश्यमान प्रतिनिधित्व (विज़िबल रिप्रेजेंटेशन) या नीतिगत बदलाव केवल सामाजिक मान्यताओं को ही नहीं बदलते, बल्कि यह इस बात का प्रमाण हैं कि ये मान्यताएं पहले ही बदल चुकी हैं। #CelebratingAcceptance जैसी फिल्में रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हो रहे इस मूक बदलाव को बखूबी दर्शाती हैं, और इस तथ्य का उत्सव मनाती हैं कि एक इंसान और एक भारतीय होने के नाते, हम उन मुद्दों पर कहीं अधिक एकजुट हैं, जो हमें जोड़ते हैं, बजाय उनके जो हमें अलग करते हैं। सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग द्वारा LGBTQIA+ समावेशन पर किए जा रहे विचार-विमर्श, और वित्तीय सेवा एवं खाद्य तथा सार्वजनिक वितरण विभागों द्वारा समलैंगिक भागीदारों को महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक ढांचों में दी गई मान्यता जैसी पहलें हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। ये सभी पड़ाव हमारे इस विश्वास को दृढ़ करते हैं कि सच्ची प्रगति तभी संभव है, जब स्वीकार्यता केवल कागज़ी नीतियों तक सीमित न रहकर, हमारे आचरण और जीवन का अभिन्न अंग बन जाए।”

रज़ रहमान अली (निदेशक, ओनलीन इंडिया) ने कहा, ‘जिस बात ने मुझे ‘कांता बाई’ की ओर सबसे ज़्यादा खींचा, वह थी उसकी निष्ठा, उसकी ईमानदारी। यह कहानी सिखाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि जीवन को बस उसके असली रूप में दिखाती है। फिल्म बड़े-बड़े नाटकीय पलों या घोषणाओं पर निर्भर नहीं है; इसकी ताकत एक साधारण बातचीत की सच्चाई में निहित है। जब कांता जैसा कोई इतनी सहजता से स्वीकार करती है, तो यह इस सोच को चुनौती देती है कि सहानुभूति केवल पढ़े-लिखे या जानकार लोगों में होती है। कभी-कभी, सबसे बेहतरीन और प्रभावशाली कहानियां वही होती हैं, जो जीवन को खुद-ब-खुद अपनी बात कहने का मौका देती हैं।’