संस्कृति पुरानी ही भली थी
कम से कम नारियों की
अस्मिता तो न लुटी थी
रावन ने सीता को छुआ भी नहीं
और लंका दहन की सजा मिल गयी
कौरवों ने द्रौपदी को छुआ भी नहीं
और महाभारत हो गई
जब सुरक्षित ही नहीं है
नारी आज के समाज में
तो क्या करेगी लेकर
आज़ादी और हक बराबरी का
जब भी लुटी अस्मिता नारी की
कभी दोष उसके पहनावे पर आया
कभी ठहराया दोषी
उसके चाल चलन को
किसी ने नहीं ठहराया दोषी
पुरूष मानसिकता को एक बार भी
देर रात तुम क्यों निकली
गलती सिर्फ तुम्हारी थी
कपड़े कैसे पहने तुमने
ये दोष तुम्हारा था
पर लुट जाती है वो भी
जो रहती है बंद कमरों में
न दोष था कपड़ों का
न घूम रही थी रातों को
फिर क्यों लुटी
अस्मिता उसकी
ज़बाब देनी की है
अब बारी तुम्हारी
(संध्या श्रीवास्तव की कलम से)