– अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)
भारत की शिक्षा प्रणाली एक भयानक तूफान के चपेट में आ बैठी है। एक ऐसा तूफान, जो धूल-मिट्टी के रूप में अपने साथ भ्रष्टाचार और पेपर लीक का बवंडर साथ लिए चल रहा है। एक ऐसा तूफान, जो अनगिनत छात्रों की उम्मीदों और आकांक्षाओं को निगलता ही चला जा रहा है। इन तमाम सुर्खियों और जाँचों के पीछे एक गहरी पीड़ा और विश्वासघात की घिनौनी कहानी छिपी हुई है, जहाँ शैक्षिक ईमानदारी की नींव हिल रही है और छात्र अनिश्चितता और निराशा के दलदल में भीतर तक फँसते चले जा रहे हैं।
छात्रों के लिए, परीक्षाओं में शामिल होना और इसमें उत्तीर्ण होना शिक्षा में उपलब्धि हासिल करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह सबसे महत्वपूर्ण क्षण है, जो उनके भविष्य को परिभाषित करता है। नीट पेपर लीक और भ्रष्टाचार ने उनके सपनों को इस कदर चकनाचूर कर दिया है, जिसके बारे में जितनी बार बात की जाएगी, उतनी बार उन बेगुनाहों को इसके काँच चुभने के अलावा कोई और काम नहीं करेंगे। उनके कठिन परिश्रम और समर्पण का निष्पक्ष मूल्यांकन जो वास्तव में होना चाहिए था, वह अब दूषित हो चुका है। इसके प्रभाव गंभीर हैं, जो उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों को ही नहीं, बल्कि उनके करियर की आकांक्षाओं को भी खतरे में डालते हैं।
कहने को तो यह सिर्फ पेपर लीक का ही मुद्दा है, लेकिन इसमें शामिल लोग शायद इस बात से अनजान हैं कि इस परीक्षा घोटाले का असर छात्रों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति पर भी बहुत बुरी तरह पड़ा है। हँसते-खेलते इन छात्रों के चिंता, तनाव और निराशा ही साथी बन बैठे हैं। भ्रष्टाचार के खुलासे न सिर्फ उनकी तत्काल शैक्षणिक रैंकिंग को खतरे में डाल दिया है, बल्कि भविष्य के लिए उनकी संभावनाओं और आत्म-मूल्य को भी काफी ठेस पहुँचाई है।
एक बार सोचिए उस छात्र की मानसिक स्थिति के बारे में, जिसने न दिन देखे और न ही रातें, सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर वह अपने घर-परिवार और शहर से दूर यह सोचकर पढ़ाई करने गया कि जब भी लौटेगा, अपने पैरों पर खड़ा होकर ही लौटेगा। न खाने का पता और न पानी की प्यास, घंटों उस नए और अनजान शहर की लाइब्रेरी में पढ़कर गुजारे, हैसियत न होने के बावजूद कोचिंग वालों का पैसों से पेट भरा, ताकि उसके और परिवार के सपनों को पूरा कर सके। और यह सब एक-दो दिन नहीं, महीनों और कई-कई सालों तक किया। अनुत्तीर्ण होने पर फिर एक साल दोगुनी लगन के साथ अथाह मेहनत, वह भी मनोबल को एक इंच भी जगह से हिलाए बिना.. और फिर इतना त्याग करने के बाद एक दिन अचानक उसे पता चले कि उसके प्रयासों पर भ्रष्टाचार ने पानी फेर दिया है। यह उस मासूम के साथ किया गया विश्वासघात नहीं, तो और क्या है? भ्रष्टाचारियों ने इन मासूमों के मनोबल को गहरी नदी में डूबों-डूबों कर मार डाला है।
अब ऐसे में यदि छात्रों द्वारा आत्महत्याओं के मामले बढ़ते हैं, तो इसमें दोष मैं छात्रों का नहीं मानता, इसके गुनाहगार होंगे वो सभी भ्रष्टाचारी, जो इस कुकृत्य में शामिल हुए। उन्हें हत्यारे भी कहा जाए, तो मेरे मायने में कम ही होगा। हमारा देश बीते कुछ दशकों से न जाने कितने ही छात्रों को आत्महत्या की सूली पर चढ़ा चुका है, जिसका नाम कभी भी शासन-प्रशासन खुद पर नहीं लेता, और किनारे से निकल जाता है। वह अंग्रेजी में कहते हैं न ‘सेफर साइड खेलना’ बिल्कुल वही स्थिति है यहाँ.. काम भ्रष्टाचारियों का और नाम छात्रों का.. फिर तमाम अखबारों के पहले पन्नों पर एक ही खबर, “फलाने शहर में इस महीने में दसवें छात्र ने लगाईं फाँसी..”
मुझे यह कहते हुए बहुत दुःख हो रहा है कि जहाँ आने वाले समय में इस संख्या को कम करने पर काम करने की जरुरत कई वर्षों से थी, कहीं न कहीं इस घोटाले के बाद हमने उल्टा इसे व्यापक रूप से बढ़ाने का कार्य किया है। हश्र आने वाले समय में प्रशासन भी देखेगा, यह बात और है कि हमेशा की तरह ही उसकी आँखों पर काली पट्टी बँधी होगी।
इस संकट के बीच मेरा एक सवाल है कि इन छात्रों के मनोबल पर लगी इस घात का जवाब कौन देगा? परीक्षाओं में भ्रष्टाचार का प्रभाव केवल प्रशासनिक चूक नहीं है, बल्कि इसने हमारे शैक्षिक सिद्धांतों और समाजिक मूल्यों को भी झकझोर कर रख दिया है। यह हमारे युवाओं की आकांक्षाओं की रक्षा करने की एक सामूहिक जिम्मेदारी है।
समाज को इस कड़वी सच्चाई का सामना करना होगा कि परीक्षाओं में हर एक भ्रष्टाचार और गलत आचरण का मामला न केवल व्यक्तिगत छात्रों के भविष्य को अँधकार में डाल देता है, बल्कि हमारे समुदायों को जोड़ने वाले विश्वास के ताने-बाने को भी कमजोर करता है। यह हमारे सामूहिक उत्तरदायित्व का विश्वासघात है, जो हमारे राष्ट्र की प्रगति को रोकने वाले सबसे बड़े कारकों में से एक है। दंडात्मक कार्यों से परे, एक संयुक्त प्रयास किए जाने की सख्त जरुरत है, जो शैक्षिक प्रणाली में विश्वास को बहाल करे, ताकि हर छात्र की क्षमता की पहचान कर उसे सुरक्षित किया जा सके।
शिक्षकों, नीति-निर्माताओं, माता-पिता और पूरे के पूरे समुदाय को एकजुट होकर एक ऐसी प्रणाली की पुनः स्थापना करने की जरुरत है, जो निष्पक्षता और मेरिटोक्रेसी के सिद्धांतों को बनाए रखे। यह सिर्फ पिछली गलतियों को सुधारने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आगे की दिशा में एक ऐसा रास्ता बनाने के बारे में भी है, जो हमारे युवाओं की भलाई और भविष्य की संभावनाओं को प्राथमिकता दे।
हमें आत्ममंथन करने की बहुत जरुरत है, जिसका उपयोग एक ऐसे भविष्य का निर्माण करने के लिए किया जाए, जहाँ हर छात्र की सफलता की यात्रा में अवसरों की मशाल बिछाई जाए, बाधाओं की नहीं, जहाँ विश्वास एक विलासिता नहीं, बल्कि एक मौलिक अधिकार हो। अंततः, हमारे समाज की प्रगति का सच्चा मापदंड हमारी अगली पीढ़ी की सुरक्षा और सशक्तिकरण पर ही केंद्रित है। साथ ही, हमें सुनिश्चित करना होगा कि हमारे द्वारा उन्हें एक ऐसी दुनिया विरासत में मिले, जहाँ न्याय, सत्यनिष्ठा और करुणा सर्वोपरि हों।
(अतुल मलिकराम लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार हैं तथा ये उनके निजी विचार हैं)